हाइब्रिड पॉलिटिकल पार्टी 'आप'' यदि कांग्रेस से गठबंधन करेगी तो सियासी तौर पर समाप्त हो जाएगी?
हाइब्रिड पॉलिटिकल पार्टी 'आप' को डर है कि यदि वह कांग्रेस से गठबंधन करेगी तो सियासी तौर पर समाप्त हो जाएगी. पंजाब और दिल्ली की राजनीतिक परिस्थिति भी इसी बात की चुगली करती है।
देश की राजधानी दिल्ली में फरवरी 2025 में विधानसभा चुनाव होंगे और यहां पर सत्तारूढ़ 'आम आदमी पार्टी' एक बार फिर पूरे दम-खम से अकेले यह चुनाव लड़ेगी जबकि वह कांग्रेस के नेतृत्व वाली इंडिया गठबंधन की भागीदार पार्टी रही है। बताया जाता है कि हाइब्रिड पॉलिटिकल पार्टी 'आप' को डर है कि यदि वह कांग्रेस से गठबंधन करेगी तो सियासी तौर पर समाप्त हो जाएगी. पंजाब और दिल्ली की राजनीतिक परिस्थिति भी इसी बात की चुगली करती है।
कहना न होगा कि 'छोटा हिंदुस्तान' समझा जाने वाले 'दिल्ली प्रदेश' का विधानसभा चुनाव किसी भी राजनीतिक दल के लिए काफी अहमियत रखता है। यहां पर पहले कांग्रेस और उसके बाद भाजपा का शासन रहा है। बाद में भी इन्हीं दोनों पार्टियों के बीच सत्ता की अदला-बदली हुई लेकिन दिल्ली की स्थानीय पार्टी के तौर पर 'आप' के राजनैतिक अभ्युदय ने कांग्रेस और भाजपा दोनों के समक्ष एक नई राजनीतिक चुनौती खड़ी कर दी, जो अब तलक जारी है।
समझा जाता है कि कभी केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के जबड़े से 2013 में उसकी सूबाई सत्ता छीनना और फिर केंद्र में सत्तारूढ़ हुई भाजपा के कसते सियासी शिकंजे के बावजूद 2015 और 2020 में भी यहां की सत्ता को बचाए रखना दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल की बहुत बड़ी राजनीतिक सफलता है जिसके लिए उन्हें नाको चने चबाने पड़े। इसके ही खातिर उन्हें तिहाड़ जेल तक जाना पड़ा जहां से फिलवक्त बेल पर वह बाहर हैं।
दरअसल, हाइब्रिड पॉलिटिकल पार्टी 'आप' एक अलबेली राजनीतिक पार्टी है जो कई मामलों में भाजपा और कांग्रेस से अलग है तथा क्षेत्रीय दलों से काफी आगे है। 'कांग्रेस' एवं उसकी विरोधी रही 'जनता पार्टी' व 'जनता दल' और भाजपा के अलावा 'आप' एकमात्र राजनीतिक पार्टी है जो एक के बाद दूसरे राज्य में अपने बलबूते सरकार बनाने में सफल हुई और सफलता पूर्वक उसका संचालन कर रही है। युवा पेशेवरों की यह पार्टी तमाम विवादास्पद मुद्दों में निष्पक्ष अंदाज रखती आई है हालांकि केंद्रीय सत्ता तक पहुंचना अभी भी उसके लिए 'नई दिल्ली दूर है' जैसा प्रतीत होता है।
हालांकि इंडिया गठबंधन की सोहबत और भाजपा के धुर विरोध में 'आप' को भी अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीति अपनानी पड़ी है। आरक्षण सम्बन्धी दुविधाजनक स्टैंड लेना पड़ा। भ्रष्टाचार के 'अंध कुएं' में गोते लगाने पड़े हैं। शानो शौकत के वास्ते शीश महल (मुख्यमंत्री का आवास) तक बनवाने पड़े। वहीं, जनता को 'रिश्वत' स्वरूप मुफ्त बिजली-पानी देने की उसकी शुरुआत और शिक्षा-स्वास्थ्य सम्बन्धी जनसुविधा आज सभी पार्टियों के एजेंडे में शामिल हो चुका है। इसे भारतीय राजनीति में 'रेवड़ी कल्चर' कहा जाता है जिसकी शुरुआत 'आप' ने की है। कांग्रेस/भाजपा आदि तो इस मामले में अब 'आप' से भी दो कदम आगे बढ़ चुके हैं।
देखा जाए तो 2025 में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले अरविंद केजरीवाल ताबड़तोड़ फैसले ले रहे हैं जिसमें अपनी भरोसेमंद सहयोगी मंत्री रहीं आतिशी मर्लेना को दिल्ली का नया मुख्यमंत्री बनाया जाना भी शामिल है।
वहीं, हाल ही में उन्होंने दूसरी महत्वपूर्ण घोषणा की है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में वह कांग्रेस से गठबंधन नहीं करेंगे। शायद यह हरियाणा विधानसभा चुनाव में 'आप' के प्रति 'कांग्रेस' की ओर से दिखाई गई राजनीतिक बेरुखी का असर और प्रतिक्रिया स्वरूप करारा जवाब है क्योंकि तब भी कांग्रेस-आप का गठबंधन टूट गया था।
फ़लसफ़ा यह निकला कि 'कांग्रेस' हरियाणा की सत्ता में आ नहीं पाई और वहां पर अपने बलबूते चुनाव लड़ी 'आप' का खाता तक नहीं खुला, जबकि यह आप सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल का गृह प्रदेश भी है। हालांकि यह बात सभी जानते हैं कि गठबंधन में रहते हुए भी 'आप' ने लोकसभा चुनाव 2024 के दौरान कांग्रेस से अपने वर्चस्व वाले एक प्रान्त दिल्ली में गठबंधन तो दूसरे प्रान्त पंजाब में दोस्ताना संघर्ष किया। इस दौरान 'आप' पार्टी पंजाब की 13 लोकसभा सीटों में से मात्र 3 सीटें ही जीत पाई जबकि कांग्रेस को 7 सीटें मिलीं। यही बात आप को अखर गई।
वहीं, दिल्ली में भी उसने लोकसभा की 7 सीटों में से 3 सीटें कांग्रेस को दी थी लेकिन दोनों पार्टियां यहां जीरो पर आउट हो गईं क्योंकि यहां भी सियासी तालमेल नदारद दिखा था। परिणाम यह हुआ कि सातों लोकसभा सीटों पर भाजपा जीत गई, जो पहले भी सभी सीटों पर काबिज थी।
ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि क्या दिल्ली में मुकाबले को त्रिकोणीय बना पाएगी कांग्रेस क्योंकि जहां जहां भी त्रिकोणीय मुकाबले की नौबत आती है तो अक्सर सत्ता पक्ष फायदे में रहता है। आप के लिए यह स्थिति यहां भी फायदेमंद हो सकती है।
चूंकि दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच गठबंधन की लगभग सभी संभावनाएं समाप्त हो गई हैं , यह तय हो चुका है कि दोनों पार्टियां चुनावी मैदान में एक-दूसरे के खिलाफ खड़ी होंगी।
ऐसे में आप से ज्यादा कांग्रेस का चुनावी सफर मुश्किल नजर आ रहा है। वहीं, गठबंधन में फूट की खबर सामने आते ही राजनीतिक गलियारों में अटकलों का बाजार गर्म हो गया है।
जैसे ही दिल्ली विधान सभा चुनाव से पहले इंडिया गठबंधन के दो अहम दलों, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की ओर से साफ संकेत मिला कि इस बार दोनों पार्टियां चुनावी रण में एक-दूसरे के सामने खड़ी होंगी तो सबसे ज्यादा चर्चा कांग्रेस को लेकर चलने लगी क्योंकि जो कांग्रेस कुछ वक्त पहले तक अरविंद केजरीवाल के खातिर बीजेपी से लड़ रही थी, अब वहीं कांग्रेस आखिर आम आदमी पार्टी और केजरीवाल के खिलाफ कैसे मोर्चा खोलेगी, यक्ष प्रश्न है?
हालांकि मौजूदा सियासत में विचारों का उलट फेर एक आम सी बात हो गई हैं। चूंकि दिल्ली की जनता सूझबूझ वाली है, ऐसे में कांग्रेस के लिए राह आसान नहीं होगी। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि दिल्ली में कांग्रेस त्रिकोणीय मुकाबला बनाने की स्थिति में नहीं है। दिल्ली की सियासत में कांग्रेस और आप के बीच रिश्ते स्वार्थ वाले रहे हैं। मसलन, जिस आम आदमी पार्टी ने भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर कांग्रेस को दिल्ली की सत्ता से बेदखल किया था, वही आम आदमी पार्टी जब खुद भ्रष्टाचार के आरोप में घिरी तो कांग्रेस से हाथ मिला लिया।
अलबत्ता, कांग्रेस ने भी अपने सियासी फायदे को देखकर 'आप' से हाथ मिलाने में ही समझदारी समझी, क्योंकि बीजेपी से अकेले टकराना, दोनों पार्टियों के बस से बाहर था। बताया जाता है कि लोकसभा चुनाव 2024 में कांग्रेस को इससे आप से ज्यादा फायदा मिला। खासकर पंजाब में वह आप से दुगुनी से अधिक लोकसभा सीटें जीतने में कामयाब रही जबकि दिल्ली की प्रबुद्ध जनता इस सांठगांठ को अच्छे समझ गई। इसलिए लोकसभा चुनाव में दोनों पार्टी के गठबंधन को नकार दिया।
जिस तरह से आम आदमी पार्टी (आप) के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने फरवरी में होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए अपनी पार्टी और कांग्रेस के बीच गठबंधन की संभावना से बीते रविवार को इनकार किया, उससे इंडिया गठबंधन के भविष्य को लेकर भी तरह तरह के सवाल उठ रहे हैं क्योंकि केजरीवाल ने कहा कि, 'दिल्ली में कोई गठबंधन नहीं होगा।' हालांकि आप और कांग्रेस ‘इंडिया’ गठबंधन का हिस्सा हैं। दोनों दलों ने इस साल की शुरुआत में दिल्ली में लोकसभा चुनाव मिलकर लड़ा था लेकिन किसी भी सीट पर गठबंधन को जीत नहीं मिली थी और सभी 7 सीट बीजेपी ने जीती थीं।
बता दें कि दिल्ली विधानसभा की 70 सीटों के लिए 2025 में चुनाव होंगे। 2020 में हुए विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने 62 सीटें जीती थीं। वहीं बीजेपी को महज 8 सीटों पर जीत मिली थी। कांग्रेस का लगातार दूसरी बार दिल्ली से सफाया हो गया था। इस बार भी कांग्रेस की दिल्ली में मजबूत स्थिति नहीं है। ऐसे कांग्रेस मुकाबले में दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रही है। याद दिला दें कि कांग्रेस ने 2008 में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज करते हुए सरकार बनाई थी। 2008 में कांग्रेस को 40.31 फीसदी वोट मिले थे।
हालांकि, साल 2013 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा था। वर्ष 2008 में जहां पार्टी का वोट प्रतिशत 40 फीसदी था, वो वर्ष 2013 में घटकर 25 प्रतिशत पर आ गया था। वहीं, साल 2015 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को तगड़ा झटका लगा, जब उसे 10 फीसदी से भी कम वोट मिले और उसे एक भी सीट नहीं मिली। कहने का तातपर्य यह कि सिर्फ 7 सालों में ही कांग्रेस का वोट प्रतिशत 40 से घटकर 9.7 फीसदी पर आ गया। उसके बाद वर्ष 2020 का विधानसभा चुनाव भी उसके लिए बुरा साबित हुआ। तब कांग्रेस का वोट प्रतिशत 2015 से भी कम हो गया है। इस बार कांग्रेस को 4.26 प्रतिशत वोट मिले थे। ये पिछले 12 सालों में पार्टी का सबसे खराब प्रदर्शन था।
बावजूद इसके, कांग्रेस की ओर से भी पहले ही संकेत दिया चुका है कि वह दिल्ली विस चुनाव के रण में अकेले ही उतरने वाली हैं। दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष देवेंद्र यादव और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता संदीप दीक्षित ने पिछले कुछ दिनों से आप और अरविंद केजरीवाल के खिलाफ आवाज बुलंद कर रखी है। हाल ही में एक साक्षात्कार में स्व. शीला दीक्षित के पुत्र संदीप दीक्षित कह चुके हैं कि अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में गठबंधन धर्म का पालन नहीं किया है। इससे साफ संकेत है कि कांग्रेस विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने के मूड में है। वहीं कांग्रेस के कई स्थानीय नेता आम आदमी पार्टी में शामिल हो चुके हैं। इस बात को लेकर भी कांग्रेस का टेंशन और गुस्सा दोनों बढ़ा हुआ है।
ऐसे में कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती दिल्ली की जनता को अपना एजेंडा समझाने में होगी क्योंकि लोकसभा चुनाव 2024 के दौरान कांग्रेस के नेता अरविंद केजरीवाल के बचाव में बयान दे रहे थे। वही नेता अब अरविंद केजरीवाल पर हमलावर हैं। लिहाजा, दिल्ली की जनता भी कांग्रेस के रवैये को देखकर कन्फ्यूजन में है। उल्लेखनीय है कि दिल्ली शराब घोटाला मामले को लेकर भी कांग्रेस पहले चुप थी लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव नजदीक आते ही कांग्रेस, आप को इस घोटाले से घेर रही है। इसलिए दिल्ली में कांग्रेस का किरदार फिलहाल जनता की समझ से बाहर लग रहा है। कांग्रेस इस चुनाव में बीजेपी और आप के सामने कहीं टिकती हुई नजर नहीं आ रही है।
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वहीं, केजरीवाल के बयानों से यह भी स्पष्ट हो चुका है कि हरियाणा के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस और आप के बीच गठबंधन की चर्चा चली थी लेकिन बात नहीं बनी थी। वहीं दिल्ली में आप और कांग्रेस के गठबंधन को लोकसभा चुनाव में सात में से एक भी सीट नहीं मिली थी। पंजाब में दोनों दल एक-दूसरे के ख़िलाफ़ चुनावी मैदान में उतरे। दोनों दलों के बीच ये उतार-चढ़ाव वाली 'दोस्ती' आप के बनने के बाद से ही चल रही है।
यहां पर एक बात याद दिलाना जरूरी समझता हूं कि हरियाणा विधानसभा चुनाव में आप को 1.79 फ़ीसदी वोट मिले थे। वहीं बीजेपी को 39.94 प्रतिशत तो कांग्रेस के खाते में 39.09 प्रतिशत मतदान गया। वहां बीजेपी ने 90 में से 48 सीटें जीतकर सरकार बना ली। वहीं कांग्रेस को 37 सीटों से ही संतुष्ट होना पड़ा जबकि आप का खाता भी नहीं खुला। ऐसे में देखा जाए तो बीजेपी और कांग्रेस के बीच के वोट में अंतर सिर्फ 0.85 का था।
लिहाजा साफ है कि आप और कांग्रेस साथ आते तो शायद बीजेपी को हरियाणा में फायदा नहीं होता। कुछ ऐसा ही दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी हो सकता है बशर्ते कि आप और कांग्रेस के बीच गठबंधन हो जाये हालांकि, दिल्ली में ऐसा नहीं होगा, क्योंकि, यहां 'आप' और 'कांग्रेस' दोनों का मतदाता बेस एक ही है। इसलिए दोनों चाहते हैं कि हम बढ़े तो हम बढ़ें और इस कारण से समझौता नहीं हो पाता।
हालांकि, उन्हें इस बात का रास्ता तलाशना चाहिए कि तमाम विरोधाभासों के बीच आपस में कैसे सहयोग करे ताकि भाजपा को यहां फायदा नहीं मिले लेकिन दिल्ली में दिक्कत यह है कि यहां पर यदि कहीं आप बढ़ेगी तो कांग्रेस के क्षेत्र में बढ़ेगी और कहीं कांग्रेस बढ़ेगी तो आप का बढ़ना रुक जाएगा। इस कारण दोनों का समझौता दिल्ली में नहीं हो पाता।
यह ठीक है कि भारतीय राजनीति में गठबंधन राजनीतिक मजबूती से होते हैं पर कांग्रेस दिल्ली में इस समय काफी कमजोर है। बावजूद वह अपने प्रभाव वाले राज्यों में सहयोगियों को तवज्जो नहीं देती है। इसलिए सहयोगी भी अब अपने प्रभाव वाले राज्य में उसे तवज्जो नहीं दे रहे हैं। उत्तरप्रदेश में सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने उपचुनाव में जो कांग्रेस विरोधी शुरुआत की, उससे दिल्ली के आप प्रमुख अरविंद केजरीवाल भी प्रभावित हैं।
बताया जाता है कि अब अरविंद केजरीवाल भी यूपी उपचुनाव की तरह ही दिल्ली विधानसभा चुनाव में जोखिम लेने को तैयार हैं क्योंकि अब हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव के बाद से यह जाहिर हो गया है कि कांग्रेस अपने बूते पर बीजेपी से टक्कर लेने में सक्षम नहीं है और वह अपने सहयोगियों को भी जितवाने में सक्षम नहीं है। यूपी उपचुनाव का ताजा परिणाम भी सबके सामने है, जहां बीजेपी के मुकाबले सपा टिक नहीं सकी। इसलिए दिल्ली में अरविंद केजरीवाल एकला चलो का राग अलाप रहे हैं।
अलबत्ता, अरविंद केजरीवाल के बयान से 'इंडिया' गठबंधन के अस्तित्व पर एक और बड़ा प्रश्न चिह्न लग गया है! बताया जाता है कि अरविंद केजरीवाल हरियाणा के चुनाव में चाहते थे कि 'इंडिया' का घटक दल होने के नाते कांग्रेस उनको कुछ सीटें दे लेकिन कांग्रेस ने अपनी जीत के उत्साह में केजरीवाल की मांग को ठुकरा दिया। इसलिए अब केजरीवाल नहीं चाहते हैं कि वो कांग्रेस को दिल्ली में पांच से दस सीटें भी दें।
वहीं, कांग्रेस के साथ दुविधा ये है कि वह अपने बूते दिल्ली में शून्य है। तीसरी बार ऐसा हो सकता है कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुले। उल्लेखनीय है कि 2015 और 2020 में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 70 में से एक भी सीट नहीं जीत पाई और उसके वोट प्रतिशत में लगातार गिरावट आती गई।
राजनीतिक मामलों के जानकार भी बताते हैं कि 'आप' का उदय तो कांग्रेस के ख़िलाफ़ हुआ। दिल्ली के बाद पंजाब में भी उसने कांग्रेस से ही सत्ता झटकी। हां, एमसीडी चुनाव में आप पहली बार बीजेपी को सीधे गच्चा देने में सफल रही।
पंजाब में आप और कांग्रेस एक-दूसरे के ख़िलाफ़ ही लड़े। हरियाणा में हुए विधानसभा चुनाव में भी गठबंधन नहीं था। आप का जो भी विकास हुआ, वो तो कांग्रेस के विरोध के रूप में ही हुआ क्योंकि आप के जन्म के समय तो कांग्रेस ही केंद्रीय और दिल्ली दोनों की सत्ता में काबिज थी। तब आरएसएस का उसे गुप्त सहयोग हासिल था।
बता दें कि दिल्ली की सत्ता पर 15 साल तक काबिज रहीं और एक सफल मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के रूप में चर्चित नेत्री के नेतृत्व वाली कांग्रेस भी 2013 के विधानसभा चुनाव में नवगठित पार्टी 'आप' से हार गई क्योंकि तब 'आप' के खाते में बीजेपी के नहीं बल्कि कांग्रेस के भी वोट गए। हालांकि, बीजेपी के दिल्ली में 30 फीसदी से अधिक वोटर बने हुए हैं जिससे यहां की सत्ता में उसकी वापसी की संभावना जिंदा है जबकि कांग्रेस के साथ ऐसा नहीं है।
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आंकड़े गवाह हैं कि वर्ष 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप को 70 सीटों में से 28 सीटों के साथ 29 फ़ीसदी से अधिक वोट मिले थे। वहीं बीजेपी को 31 सीटें मिली थी और उसका वोट 30 प्रतिशत के आसपास बना रहा। तब, कांग्रेस को 10 सीटें और 24 फ़ीसदी से अधिक वोट मिले थे। हालांकि, इस चुनाव में बीजेपी 31 सीटों पर जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी थी, लेकिन कांग्रेस द्वारा आप का साथ दिए जाने से अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बन गए। हालांकि, दोनों का साथ 50 दिन भी नहीं चल पाया था।
वहीं, वर्ष 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप ने 67 सीटें जीती, जबकि बीजेपी महज 3 सीट पर ही सिमट गई। इस चुनाव में कांग्रेस का वोट प्रतिशत 10 फीसदी के करीब रहा लेकिन सीट एक भी नहीं। वहीं, बीजेपी का वोट प्रतिशत इस चुनाव में भी 30 फ़ीसदी से अधिक बना रहा।
वहीं, वर्ष 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप को 62 सीटें 53 प्रतिशत से ज्यादा वोट के साथ मिली थी जबकि बीजेपी को महज 35 फीसदी से अधिक मत मिले लेकिन इसमें कांग्रेस मात्र पांच प्रतिशत के आंकड़े को भी पार नहीं कर पाई थी।
अब ये तो दिल्ली में अगले साल 2025 में होने वाले विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद ही पता लगेगा कि किसे कितनी सीटें मिलेगी लेकिन इतना साफ है कि कांग्रेस के लिए राह काफी मुश्किल होने वाली है। कहा भी जाता है कि अपने फायदे के लिए राजनेतागण कुछ भी कर सकते हैं। कौन सहयोगी कब प्रतिद्वंदी बन जाए और कौन प्रतिद्वंदी कब सहयोगी बन जाए, इसका अंदाजा कोई नहीं लगा सकता है हालांकि जनता को इसका खामियाजा अवश्य भुगतना पड़ता है।
सवाल यह भी उठा कि आप और कांग्रेस की 'दोस्ती' बनती और टूटती क्यों रहती है ? क्या सिर्फ इसलिए कि राजनीति में कुछ भी हो सकता है लेकिन ये थोड़ा चौंकाने वाला ज़रूर था कि साल 2023 में आप ने उस कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई थी जिसके ख़िलाफ़ वो प्रचार करके चुनावी मैदान में उतरी थी। इसके बाद से आप और कांग्रेस के बीच गठबंधन होता और टूटता रहता है।
ऐसे में सवाल ये है कि आख़िर बीजेपी के ख़िलाफ़ बने गठबंधन 'इंडिया' में शामिल कांग्रेस और आप एक साथ क्यों नहीं आ पा रहे? क्या यह महाराष्ट्र और झारखंड के नतीजों के बाद कांग्रेस की सिमटती सियासी हैसियत का साइड इफेक्ट्स है जिसका दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और आप के बीच के आपसी रिश्तों पर असर हुआ है या फिर हाइब्रिड पॉलिटिकल पार्टी 'आप' समय रहते ही यह बात समझ चुकी है कि यदि वह कांग्रेस से गठबंधन करेगी तो सियासी तौर पर समाप्त हो जाएगी, आज नहीं तो निश्चय कल !
कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक