प्रायः देखा है
प्रायः देखा है
हम सूर्यास्त जब होने लगता है तो घर में प्रकाश का साधन प्रज्ज्वलित कर लेते है पर विडम्बना है कि जब जीवन की शाम ढलने लगती है और आगे अंधेरा स्पष्ट दीखने लगता है तो भी प्रायः देखा जाता है कि अंतर-आत्मा की ज्योति जलाने की कोई कोशिश ही नहीं करता है ।जीवन का दीपक बिना जले ही बुझ जाता है।
उम्र की दहलीज पर जब सांझ की आहट हुई तब ख्वाहिशें थम गई और सुकून की तलाश बढ़ गयी क्योंकि मर्यादित जीवन का जब अंत होगा तब इस लोक की कोई भी वस्तु हमारे साथ नही जाएगी ।इस बात का हमे ज्ञान होगा रहन-सहन, घर परिवार के अलावा स्वयं के अध्यात्म में रमने आदि से जिससे मन में वैराग्य जागे क्योंकि भौतिक धन तो कोई छीन भी सकता है आध्यात्मिक सम्पत्ति को कोई छीन नहीं सकता हैं ।
हमको आत्मचिन्तन के दरिये में गोते लगाकर आत्ममंथन कर नवनीत निकालना है और भवभ्रमण को अब सीमित करके द एंड करना है यानि !परम लक्ष्य की प्राप्ति करनी है। किसी ने कहा कि आइना स्वयं का देखा तब पता चला कि लोगों की तलाश में बीत गई सारी ज़िंदगानी तब जा कर समझ आया कि खुद से बड़ा कोई हमसफ़र नहीं होता हैं । भौतिकवाद,अर्थ, पद, प्रतिष्ठा एवं सांसारिक आदि के चक्कर में हम हमेशा उलझें ही रहतें है और धर्म - ध्यान, तपस्या आदि की बात आये तों हम कल के भरोसे छोड़ देतें है ।
अतः हम समय में सें समय निकालकर, आध्यात्मिक की और अग्रसर होकर, नित्य त्याग, तपस्या, स्वाध्याय साधना आदि करतें हुवें इस दुर्लभतम मनुष्य जीवन का पूरा सार निकालते हुवें हम अपने परम् धाम की और अग्रसर हों जिससे जीवन का दीपक बिना जले ही बुझ ना जाये ।
प्रदीप छाजेड़ ( बोरावड़)