भगवान महावीर का 2593 वां दीक्षा कल्याणक दिवस
भगवान महावीर का 2593 वां दीक्षा कल्याणक दिवस -
दीक्षा का अर्थ मेरे शब्दों में यह हैं की जीवन को अध्यात्म की राह पर संयमपूर्वक चलाकर कर्मों का क्षय करते हुए आत्मा को भावित करना या हल्का करना हैं । दीक्षा लेना ही अपने आप में ख़ाँडे की धार या लोहे के चने चबाने जैसा हैं । यह कार्य विरले व पुण्यशाली व्यक्तियों के द्वारा ही होता हैं । वैसे तो दीक्षा दिवस अपने आप में ही ह्रदय को प्रसन्नचित करने वाला होता हैं अगर वो ही दीक्षा कल्याणक दिवस वितराग प्रभु या तीर्थंकर का हो तो वो अपने ह्रदय को और ज़्यादा रोमांचित करने वाला होता हैं । तीर्थंकरों को कोई दीक्षा प्रदान नहीं करता तीर्थंकर तो उचित समय आने पर स्वतः ही दीक्षा लेते हैं और कर्मों का क्षय करके चिर - परिचित केवल ज्ञान को प्राप्त करते हैं ।
भगवान महावीर ने आज ही के दिन 2592 वर्ष पूर्व दीक्षा ली और 12-12:50 वर्षों तक तपस्या व साधना आदि करके सभी कर्मों का क्षय करते हुए केवल ज्ञान को प्राप्त किया ।24 तीर्थंकरों में से 23 तीर्थंकरो का कष्ट एक तरफ़ व भगवान महावीर का कष्ट एक तरफ़ हो तो कोई आश्चर्य नही होगा । भगवान महावीर ने 30 वर्ष तक गृहस्थ में रहकर उसके बाद उन्होंने दीक्षा ग्रहण की व संयमजीवन में अपना आयुष्य पूर्ण कर मोक्ष का वरण किया । भगवान महावीर का दीक्षा कल्याणक आयोजनात्मक नही प्रयोजनात्मक हो । उनकी मूलभूत सारगर्भित शिक्षायें हमारे जीवन में उतरे ।
उनके उपदेश हमारे जीवन और आचरण में आए । भगवान महावीर को पहचानना है तो हम लक्ष्य के प्रति समर्पित रहे, कष्टों को सहने की क्षमता हो, प्रतिकूल परिस्थितियों में भी समता व संतुलन स्थापित हो, मौन साधना और शरीर को तपने हेतु सदैव तत्पर आदि रहे । किसी भी प्राणिमात्र के प्रति हमारे ह्रदय में सह - अस्तित्व की भावना विद्यमान रहे । भगवान महावीर की मूल शिक्षा अहिंसा की भावना सदैव रहे । भगवान महावीर का एक और संदेश - क्षमा । क्रोध और अहंकार मिश्रित दुर्भावना न उत्पन्न हो ।
तप और ध्यान की पराकाष्ठा से हम भगवान महावीर को पहचाने । उनके संदेश के आलोक पूंज की ज्ञान रश्मियों से जीवन को आप्लावित करे ।संसार को तारने वाले वितराग प्रभु महावीर की महिमा का पूर्ण संगान करने को मेरे पास शब्द ही नहीं हैं । सिर्फ पूजा अभ्यर्थना से कुछ नहीं होगा आज हम सबको महावीर बनकर जन जन की पीर को समझकर उसे दूर करने की जरूरत है। अन्त मैं में यही कहूँगा की कर्मों की उदीरणा करते हुए भव - भवान्तर के संसार - चक्र से हम अतिशीघ्र मुक्त होकर हम भी सिद्ध - बुद्ध बन जायें । इन्ही शुभ भावो के साथ मैं मेरी वाणी को विराम लगाते हुए भगवान महावीर के चरणो में शत् शत् बारम्बार वंदन करता हुँ । प्रदीप छाजेड़
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