बीजेपी अध्यक्षः पंकज चौधरी की ताजपोशी को योगी हज़म कर पाएंगे

Dec 14, 2025 - 09:21
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बीजेपी अध्यक्षः पंकज चौधरी की ताजपोशी को योगी हज़म कर पाएंगे

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के उत्तर प्रदेश इकाई में बड़ा बदलाव होने वाला है। केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री और महराजगंज से सात बार सांसद पंकज चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की प्रक्रिया तेज हो गई है। उससे पहले शनिवार को केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल और विनोद तावड़े की मौजूदगी में तमाम औपचारिकताएं पूरी की जा रही हैं। रविवार 14 दिसंबर को औपचारिक ऐलान होने की संभावना है।

यह नियुक्ति 2027 के विधानसभा चुनाव के लिए तो महत्वपूर्ण है ही लेकिन बीजेपी की अंदरुनी राजनीति यूपी में जिस तरफ बढ़ रही है, उसका भी पता चलता है। यह घटनाक्रम पंकज चौधरी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से उनके रिश्तों और उत्तर प्रदेश की जटिल जाति राजनीति को भी सामने ला रहा है। क्या यह ओबीसी वोटों को मजबूत करने का जातिगत दांव है? या फिर योगी सरकार और पार्टी संगठन के बीच संतुलन का प्रयास? पंकज चौधरीः गोरखपुर से केंद्र तक कैसे पहुंचे पंकज चौधरी का जन्म 1964 में गोरखपुर जिले के एक साधारण कुर्मी परिवार में हुआ। कुर्मी समुदाय अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का प्रमुख हिस्सा है, जो पूर्वांचल में किसान-व्यापारी वर्ग के रूप में जाना जाता है।

उन्होंने गोरखपुर विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री हासिल की और 1989 में आज़ाद उम्मीदवार के रूप में गोरखपुर नगर निगम के पार्षद चुने गए। अगले ही साल वे उप-मेयर बने और 1990 में भाजपा की प्रदेश कार्यकारिणी के सदस्य। 1991 में पहली बार महराजगंज लोकसभा सीट से भाजपा के टिकट पर जीत हासिल की, जो उनकी राजनीतिक यात्रा का टर्निंग पॉइंट साबित हुई। केंद्र में एक ही विभाग का मंत्री पद बरकरार रहा चौधरी ने 1991, 1996, 1998, 2004, 2014, 2019 और 2024 में महराजगंज से जीत दर्ज की, जो पूर्वांचल में भाजपा का मजबूत गढ़ है। 2009 में वे कांग्रेस के हरिशंकर तिवारी से हार गए, लेकिन वापसी मजबूत हुई। 2021 से वे मोदी सरकार में वित्त राज्य मंत्री हैं, जो 2024 में दोबारा बरकरार रहा। उनकी छवि एक लो-प्रोफाइल, ईमानदार और विवादों से दूर रहने वाले नेता की है। वे हमेशा पक्ष-विपक्ष दोनों से संतुलित संबंध बनाए रखते हैं। महराजगंज जिला पंचायत अध्यक्ष का पद हमेशा उनके करीबी के पास रहा है। आदित्यनाथ के गढ़ में चौधरी अब प्रदेश अध्यक्ष पद पर उनकी ताजपोशी पूर्वांचल को मजबूत करने का संकेत है। महराजगंज, गोरखपुर के करीब है, जहां योगी आदित्यनाथ का गढ़ माना जाता है। भाजपा आलाकमान ने 2027 विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए यह फैसला लिया है।

वर्तमान अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह चौधरी का कार्यकाल जनवरी 2025 में समाप्त हो रहा था, लेकिन खरमास (16 दिसंबर से) से पहले 14 दिसंबर को ऐलान हो जाएगा। अन्य दावेदारों जैसे बीएल वर्मा, रामशंकर कठेरिया और धर्मपाल सिंह के नाम भी चर्चा में थे, लेकिन चौधरी सबसे आगे रहे। योगी आदित्यनाथ से रिश्ते: सहयोग या तनाव? पंकज चौधरी और योगी आदित्यनाथ दोनों पूर्वांचल के हैं, लेकिन उनके रिश्ते जटिल रहे हैं। गोरखपुर-महराजगंज की भौगोलिक निकटता होने के बावजूद, राजनीतिक रूप से वे हमेशा एक-दूसरे के पूरक नहीं दिखे। 2024 लोकसभा चुनाव से पहले चौधरी ने एक बयान दिया था, जिसमें उन्होंने कहा कि "लोग मोदी सरकार के काम पर वोट देंगे।" इस दौरान योगी से उनके रिश्तों पर अफवाहें उड़ीं, लेकिन चौधरी ने इन्हें साजिश करार दिया। उन्होंने कहा, "मैं भाजपा का साधारण कार्यकर्ता हूं, योगी जी नेता और मुख्यमंत्री हैं। मेरे और उनके बीच तुलना नहीं हो सकती। यह 'फूट डालो-राज करो' की राजनीति है।" कुछ घटनाएं तनाव की ओर इशारा करती हैं अगस्त 2023 में चौधरी के पोते के बारही संस्कार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहुंचे, लेकिन योगी की अनुपस्थिति चर्चा में रही। इतना ही नहीं, मोदी उनके आवास तक 200 मीटर पैदल चलकर पहुंचे।

जून 2024 में एक कार्यक्रम के पोस्टर में योगी की तस्वीर न होने पर विवाद हुआ, हालांकि चौधरी ने इसे समर्थकों की चूक बताया। लेकिन योगी खेमे ने पंकज चौधरी को आजतक इसके लिए माफ नहीं किया। 2017 और 2022 विधानसभा चुनावों में महराजगंज के सिसवा सीट पर योगी ने प्रेमसागर पटेल को टिकट दिया, जिसका चौधरी ने विरोध किया था। पंकज चौधरी के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने गोरखपुर में मठ के दबदबे की राजनीति को कभी पसंद नहीं किया। कुछ स्रोतों के अनुसार, प्रदेश अध्यक्ष पद पर चौधरी के नाम को योगी का समर्थन प्राप्त है। लेकिन विश्लेषक कह रहे हैं कि "ओबीसी कुर्मी नेता चौधरी को जाति समीकरण की वजह से यह पद मिला है। योगी के पास समर्थन के अलावा और क्या चारा है।" लेकिन भाजपा महासचिव बीएल संतोष को योगी से बंद कमरे में बैठक करनी पड़ी। ताकि योगी की सहमति ली जा सके। सूत्रों का कहना है कि चौधरी के नाम पर योगी ने असहमति जताई है।

कुल मिलाकर, रिश्ते पेशेवर हैं - सहयोग तो है, लेकिन गहरी निकटता नहीं। चौधरी राजनाथ सिंह के करीबी माने जाते हैं, जो योगी के साथ भी संतुलन बनाते हैं। यह नियुक्ति सरकार (योगी) और संगठन (चौधरी) के बीच बैलेंस का प्रयास लगता है, खासकर 2024 लोकसभा चुनाव में यूपी में बीजेपी की सीटें कम होने के बाद। बीजेपी की जातिवादी राजनीति बीजेपी जातिवाद की राजनीति से मना करती रही है। लेकिन वो यूपी-बिहार-एमपी-राजस्थान में पूरी तरह जाति समीकरण पर चलती है। इन हिन्दी भाषी राज्यों में ओबीसी कार्ड या जातिवादी राजनीति का जिंदा रहना बताता है कि हर पार्टी की दिलचस्पी इसमें है। उत्तर प्रदेश की राजनीति हमेशा जाति पर केंद्रित रही है। 2024 लोकसभा चुनावों में भाजपा को 62 में से 33 सीटें मिलीं। उसके ओबीसी वोटों में सेंध लगी। सपा-कांग्रेस गठबंधन ने पसमांदा (पिछड़ा-दलित) फॉर्मूले से 43 सीटें जीतीं। कुर्मी, जैसे चौधरी का समुदाय, जो 8-10% वोट बैंक है, सपा की ओर खिसक गया। सपा के लालजी वर्मा जैसे कुर्मी नेताओं ने इसका फायदा उठाया।

चौधरी की ताजपोशी को भाजपा का 'नॉन-यादव ओबीसी' दांव माना जा रहा है। विश्लेषकों का कहना है कि "भाजपा 2027 चुनावों के लिए नॉन-यादव वोटों को एकजुट करने के लिए ओबीसी नेता नियुक्त कर रही है।" कुर्मी समुदाय पूर्वांचल (गोरखपुर, देवरिया, कुशीनगर) में मजबूत है, जहां भाजपा 2024 में कमजोर पड़ी। यानी "यह कुर्मी वोटों को मजबूत करने की रणनीति है, जो सपा के पास जा चुके हैं।" पहले भी स्वतंत्र देव सिंह और विनय कटियार जैसे कुर्मी नेता अध्यक्ष बने, लेकिन मोदी और अमित शाह को पूर्ण वफादारी हासिल नहीं हुई। भाजपा 'सबका साथ, सबका विकास' का नारा देती है, लेकिन नियुक्तियां जाति-आधारित हैं। 2022 विधानसभा में ओबीसी आउटरीच के बावजूद, 2024 में मौर्य-कुशवाहा-शाक्य वोट सपा की ओर गए।

लोकसभा के अंतिम चरण में नॉन-यादव ओबीसी उम्मीदवारों पर दांव खेला गया, जैसे चौधरी पर महराजगंज में। सपा का पीडीए (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) फॉर्मूला सफल रहा, जबकि भाजपा को ओबीसी रणनीति नई चाहिए। यह कदम अपना दल (एस) की अनुप्रिया पटेल को भी संदेश है, जो कुर्मी वोट शेयर करती हैं। बहुत साफ है कि "2027 में ओबीसी समर्थन वापस पाने को बीजेपी चुनौती मानकर चल रही है।" पंकज चौधरी की ताजपोशी बिहार के बाद कोइरी-कुर्मी को जोड़ने का प्रयास है। जाति राजनीति को 'जिंदा रखना' भाजपा की मजबूरी है, क्योंकि यूपी में 40% ओबीसी वोट निर्णायक हैं।