पड़ोस की संस्कृति

Nov 29, 2025 - 08:47
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पड़ोस की संस्कृति

पड़ोस की संस्कृति

डॉ विजय गर्ग 

हमने अक्सर सुना है, 'यह तो पड़ोसी धर्म है' या 'पड़ोसी से सगा दूसरा कोई भी लेकिन जैसे-जैसे जमाना बदला, समय ने करवट ली, नई सोच के साथ नही', जीवन के नए आयाम भी बनने लगे । आज यह स्थिति उत्पन्न हो गई है कि कई बार हमें यह भी पता नहीं होता है कि हमारे पड़ोस में कौन रह रहा है। जो पड़ोस हमारे सुख-दुख और जीवन की खुशियों का साथी हुआ करता था, वहां से हम कन्नी काट कर निकलना बेहतर समझते हैं। मोबाइल और इंटरनेट के इस युग में हमारी मोहल्ला संस्कृति लगभग नष्ट हो गई है। नहीं तो पहले के दौर में काम से निवृत्त होकर आसपास की सभी महिलाएं एक-दूसरे के सुख-दुख में साझेदारी निभाती थीं । सर्दी की धूप हो या रात के वक्त अलाव जलाकर हाथ सेंकना, ये सभी कार्य लोग साथ - साथ ही करते थे।

 एक भावुक - सा बंधन बंधता था, हमारा हमारे पड़ोसियों के साथ । होली की रंगत हो या दीवाली के पटाखे, आस-पड़ोस के बच्चे टोली बनाकर त्योहार का आनंद उठाते थे। कभी घर पर कोई बीमार होता तो पड़ोसी डाक्टर के पास ले जाते, लेकिन आज की संस्कृति एकलवादी होती जा रही है । हमें अपने घर के रिश्तों में भी घुटन महसूस होने लगती है, तो पड़ोसियों की बात क्या की जाए ! आज का दौर सांस्कृतिक उथल- उथल की ओर लेता जा रहा है और इसके लिए हम ही जिम्मेदार हैं। फ्लैट संस्कृति का विकास इस एकलवाद को और बढ़ावा दे रहा है। सब अपने-आप में ही बहुत खुश दिखने का प्रयास करते हैं । आज शादियां होती हैं, तो दो दिन में निपटा दी जाती हैं। पिछले दौर में यही उत्साह पंद्रह-बीस दिन तक बना रहता था, क्योंकि भाग लेने वाले लोग ज्यादा होते थे और वे ज्यादातर पड़ोसी ही होते थे। आज ऐसा समय आ गया है रिश्तेदार तक काम को हाथ नहीं लगाते . हैं। मगर पड़ोस - प्रेम की उस निश्चल दौर में बारात कब खाना खाकर उठ जाती थी, लड़की के पिता को पता भी नहीं चलता था । सारा काम आस-पड़ोस के लोग निपटा दिया करते थे ।

शाम की चौपालों में गुजरती गर्मी की रातें, हर बात में पड़ोसी का शामिल होना, यही हमारी संस्कृति का भाग रहा है। हालांकि गांव-कस्बों में अभी भी यह थोड़ा-बहुत देखने को मिल जाता है, लेकिन शहरीकरण के दबे कदम वहां की आबोहवा को भी एकाकी बना रहे हैं। यही बात देश की परिधि के परे भी लागू होती है, यानी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारे पड़ोसियों के बारे में। हमारा भारत हमेशा से ही पड़ोसी राष्ट्रों से मधुर संबंध चाहता रहा है। हमारे देश ने हमेशा अपना पड़ोसी धर्म निभाया है। ये हमारी परंपरा का हिस्सा है कि हम 'वसुधैव कुटुंबकम' का भाव संपूर्ण विश्व के लिए रखते हैं । प्रायद्वीपीय भारत की भौगोलिक स्थिति भी ऐसी ही है कि हमारे पड़ोस से हमारे सांस्कृतिक गुण काफी हद तक मेल खाते हैं। लेकिन अब अंतरराष्ट्रीय मानको में निजी स्वार्थ का बोलबाला हो रहा है। ऐसे में यह भावना हताहत हो रही है। मगर हमारे राष्ट्र ने अपने भाईचारे की नीति को अभी भी खत्म नहीं किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि चाहे हमारे निजी जीवन में हो या राष्ट्रीय जीवन में, हमें हमारे पड़ोसियों से हमेशा सुमधुर संबंधों को कायम रखना चाहिए। ये संबंध हमें न केवल भावनात्मक मजबूती प्रदान करते हैं, बल्कि हमारे जीवन को आसान बनाते हैं। हमारी स्वयं की सुरक्षा के लिए भी यह बहुत आवश्यक है कि हम अपने पड़ोसियों से संबंधों को अनुकूल बनाकर रखें। सबके अलग-अलग ढंग होने के बावजूद भी हमारे पड़ोस के सांस्कृतिक तत्त्वों को हम आत्मसात करते हैं । एक-दूसरे की संस्कृति का हिस्सा बनना कितने सौभाग्य की बात है। यह बात वही जानता है जिसने ऐसा जीवन जिया है।

 गुजरे जमाने में तो यह भी पता नहीं चलता था कि बच्चे कहां खेल रहे हैं, क्या खा रहे हैं और कैसे पल रहे हैं। वे एक बड़े परिवार रूपी पड़ोस का अभिन्न हुए हिस्सा हुआ करते थे और उनका विकास बड़े ही उन्नत रूप में होता था। वे शरीर से हृष्ट- पुष्ट और भावनात्मक रूप से मजबूत हुआ करते थे और तनाव का छोटा सिरा भी उन्हें छू नहीं सकता था। मगर आज अवसाद भयावह रूप ले रहा है। एकाकीपन एक अवसाद ही है और इससे बचने की जरूरत है। व्यक्तिगत रूप से हमें अपना समय चाहिए, तो उसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन हमें एक-दूसरे का खयाल रखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़नी चाहिए । जब-जब हमने अपने आप को व्यक्ति के रूप से अपने अंदर समेटा है, वह कहीं से भी हमारे काम नहीं आया 1 खुले हृदय और खुले व्यवहार से पड़ोस को जानने की जरूरत है। हमें एक- दूसरे का मुसीबत में साथ देना चाहिए । एक का दुख दूसरे को महसूस हो और सुख दूसरे व्यक्ति को भी सुख की नरम छाया प्रदान करे। यही हमारा देश है और भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी भाईचारे की इसी बुनियाद को वर्षों से संजोए हुए है। हम एक-दूसरे के काम आएं और बिना किसी लाग लपेट और और भ्रम के एक- दूसरे को शक्तिशाली बनाएं, यह बहुत जरूरी है। पड़ोस रूपी इस आत्मिक शक्ति को फिर से एकत्रित करने की जरूरत है, ताकि हम एक-दूसरे को मुसीबतों से बचा सकें। प्रेम और करुणा के मानवीय भावों का संचरण कर सकें, भारत को व्यक्तिगत संस्कृति और एकांतवास से बचा सकें, ताकि फिर हमारे मोहल्लों में पड़ोस का कोलाहल हो, बच्चों की हलचल हो और जिंदगी, जिंदगी जैसी लगे ।