बेटियों की जगह

बहुत मुश्किल से और लंबे वक्त में समाज में धारणाएं बदल पाती हैं। अब समाज के एक बड़े हिस्से में यह कहा जाने लगा है कि बेटियां किसी भी क्षेत्र में बेटों से कम नहीं हैं। परिवार में बेटा ही पैदा हो, यह पुरानी सोच मानी जाने लगी है। हालांकि बेटियां होने पर ससुराल पक्ष की ओर से महिलाओं को प्रताड़ित किए जाने के मामले भी सामने आते रहे हैं । कई बार यह बात अतिरिक्त जोर देकर कही जाती है कि बेटा हो या बेटी, एक ही बात होती है।
अब तो बेटियां बेटों से बढ़ कर हैं । परवरिश और पढ़ाई से वे न केवल बेहतर इंसान साबित होती हैं, बल्कि अनेक क्षेत्रों वे अपनी प्रतिभा का परचम भी लहराती हैं। यह भी सच है कि बेटियां भावनात्मक और शारीरिक रूप से भी अभिभावकों का बेहतर खयाल रखती हैं। कई मामलों में, चाहे वह पारिवारिक हो या व्यावसायिक, सलाह-मशविरे में बेटियां बेहतर भूमिका निभाती रही हैं । विकसित समाज में इसे अब सहजता से कबूल किया जाता है। लड़की का पैदा होना पहले की तरह अब उतना बुरा नहीं माना जाता, लेकिन लड़का पैदा होने का आकर्षण अभी कम नहीं हुआ है। बेटी के जन्म पर अनपढ़ ही नहीं, बल्कि कई पढ़े-लिखे लोगों के चेहरे भी लटक जाते हैं। दुनिया में आकर बेटियां बहुत कुछ सहती हैं। आजकल कुछ नवदंपति तो बच्चे ही पैदा नहीं करना चाहते, लेकिन ऐसे अभिभावक भी हैं, जो पुत्र हासिल करने के लिए कई पुत्रियों का जन्म सह लेते हैं। इस मामले में कुछ दिन बाद एक घटना और जुड़ जाती है । व्यवहार के दलदल में उतर कर समझा जाए, तो पता चलता है कि लड़का होना आज भी बहुत-सी पारिवारिक और सामाजिक सुविधाओं पर वरदहस्त प्राप्त करने जैसा है।
हमारी पारिवारिक, पारंपरिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, और राजनीतिक तल्खियां भी दिन-रात यही साबित करती हैं। कई बार यह लगता है कि लड़का और लड़की को समान मानने में अभी काफी वक्त लगने वाला है। यह सच भी है । हमारे समाज में शास्त्रों और संस्कृति की लकीर पर फकीर बन कर चलने की बात भी की जाती है, जहां आमतौर पर पुत्र की ही बात होती रही है । एक समय में राजाओं के यहां पुत्र पैदा नहीं होते थे, तो कुल गुरुओं से पूजा, हवन और यज्ञ करवाए जाते थे। हालांकि, उन पुत्र रत्नों का विवाह कन्याओं से ही होता था, ताकि नए पुत्र रत्न भी पैदा हों। फिर बेटियों का विरोध क्यों ? आधुनिक दौर का चरम विकास भी बहुत से मामलों में चतुर इंसान की सोच में उचित बदलाव नहीं ला पाया है। हैरानी इस बात की है कि जापान जैसे विकसित देश में भी ऐसा है। ओलंपिक में खूब सारे पदक जीतने वाले देश की पारंपरिक सोच में बदलाव नहीं दिखता है । उनकी पारंपरिक संस्कृति वैसी की वैसी रही। दिलचस्प यह है कि अगर वहां बच्चा गोद लेना हो, तो अधिकांश जापानी पुत्र मोह में फंसे रहते हैं। इसीलिए समाज में वयस्क लड़के गोद लिए जाने का रुझान है। आमतौर पर लड़कियों को तरजीह नहीं दी जाती है। कारोबार संभालने के लिए लड़कियां नहीं, लड़कों को प्राथमिकता दी जाती रही है । इसका मतलब यह नहीं लेना चाहिए कि दुनिया में पैतृक मानसिकता की शान बढ़ाने का कोई बोलबाला है। यह बात काफी रूढ़िवादी लग सकती है, लेकिन कहीं यह सच्चाई तो नहीं कि कुदरत ने भी शारीरिक रूप से पुरुष को औरत से ज्यादा ताकतवर, आक्रामक और निर्णय लेने में ज्यादा व्यावहारिक बनाया है। बहुत से परिवारों के आंतरिक प्रबंधन में पुरुषों का वर्चस्व कायम है।
पिछले दिनों अमेरिका से एक नजदीकी महिला रिश्तेदार का फोन आया, जिन्होंने बताया कि उनके बेटे के यहां बेटी हुई है। फोन सुनने वाली महिला ने बधाई देते हुए कहा कि आपने पहले नहीं बताया, वहां तो बच्चे की लैंगिक पहचान के बारे में पहले ही बता देते हैं। सवाल उठा कि विदेश में तो लड़की के पैदा होने का बुरा नहीं मानते, लेकिन चाहे जो हो जाए, पारंपरिक लोग लड़की होना लड़का होने के बराबर शायद नहीं मान सकते। विदेश में रह कर ऐसे लोगों के विश्वास और संस्कार बदल जाएं, यह थोड़ा असंभव - सा लगता है। उस समय महिला ने उदासी में लिपटा जवाब दिया कि लड़का होना होता तो पहले बताते, लड़की होने का क्या बताना । हैरानी की बात है कि विज्ञान के इस युग में भी ज्योतिषी आज भी हवन, यज्ञ और दूसरे उपायों के माध्यम से मदद करने का दावा कर रहे हैं कि पुत्र रत्न पधारें। उन्हें शायद पता नहीं है कि गर्भ में बेटा या बेटी कैसे विकसित होते हैं काफी बदल चुके माहौल में पुत्रियों को भी महत्त्व देना लाजिमी है। सच तो यही है कि आज वे बेटों से बेहतर इंसान साबित हो रही हैं और समाज में सकारात्मक बदलावों के नए मुहावरे गढ़ रही हैं। सवाल है कि समाज के बड़े दायरे में बेटियों के प्रति जड़ सोच में बदलाव कैसे आएगा ? विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब