वूमन इंपावरमेंट : जिम्मेदारियों का बोझ

औरतों के रोजमर्रा के जीवन पर आधारित फिल्म 'मिसेज' इन दिनों काफी चर्चा में है। इस फिल्म एक ऐसी महिला की कहानी को दिखाया गया जिस की चाहत और सपने सिलबट्टे पर चटनी की तरह पिस कर रह गए। इस फिल्म में यह दिखाने की कोशिश की गई है कि कैसे शादी के बाद एक महिला का जीवन घर की चारदीवारी में घुट कर रह जाता है । कैसे एक महिला का सारा जीवन घरपरिवार की देखभाल और किचन में ही बीत जाता है। घरेलू कामों का नाता लड़कियों के जीवन से जुड़ा हुआ है। भले ही कोई लड़की किसी समाज,
परिवार में पैदा हुई हो, उसे बचपन से ही घर के कामों की शिक्षा दी जाती है यह कह कर कि उसे दूसरे घर जाना है। बुजुर्गों का कहना है कि चाहे लड़कियां कितनी ही पढ़ लिख जाएं पर अपनी ससुराल जा कर उन्हें बनानी तो रोटियां हीं हैं। सदियों से एक प्रथा चली आ रही है कि चाहे जो भी हो, घर के कामों की जिम्मेदारी तो महिलाओं की ही बनती है। उन्हें यह एहसास दिलाया जाता है कि खाना पकाना, कपड़े धोना, बरतन मांजना और घर के सभी सदस्यों का खयाल रखना महिला की ही जिम्मेदारी है। एक ही परिवार में लड़कों को पूरी आजादी दे दी जाती है और लड़कियों को रीतिरिवाजों और संस्कारों की बेड़ियों में बांध दिया जाता है। घर की जिम्मेदारियों के साथ उन्हें धार्मिक कर्मकांडों का भी हिस्सा बनना पड़ता है। आए दिन व्रतउपवास भी करने पड़ते हैं, चाहे उन की मरजी हो या न हो या चाहे वे शारीरिक रूप से कमजोर ही क्यों न हों, उन्हें अपने बेटे, पति की लंबी आयु और अच्छे स्वास्थ्य के लिए यह सब करना ही पड़ता है। लेकिन समाज ने पुरुषों के लिए ऐसा कोई नियम नहीं बनाया है। कोई क्यों नहीं समझता शालिनी वर्किंग वूमन है ।
रोज सुबह 4 बजे उठ जाती है। घर का सारा काम करती है, नाश्ता बना कर, बच्चों को उठा कर उन्हें तैयार कर स्कूल भेजती है । फिर पति और सास के लिए लंच तैयार कर 9 बजे तक अपने औफिस के लिए निकल जाती है। रोज उसे औफिस जानेआने में करीब 3 घंटे लग जाते हैं। शाम को थक कर जब घर पहुंचती है तो कोई उसे एक गिलास पानी के लिए भी नहीं पूछता, उलटे वही सब के लिए चाय बनाती है और फिर रात के खाने की तैयारी में लग जाती है। उसे बिस्तर पर जातेजाते रात के 11 बज जाते हैं। यही रोज का नियम है। संडे को शालिनी घर के पैंडिंग काम निबटाती है। लेकिन घर के किसी सदस्य से उसे कोई मदद नहीं मिलती है। सब को यही लगता है कि शालिनी के 10 हाथ हैं और वह सबकुछ चुटकियों में कर लेगी। मगर वह भी एक इंसान है, वह 'थकती है, उस के भी शरीर में दर्द होता है, उसे भी आराम की जरूरत है, यह कोई नहीं समझता । शालिनी के पति का अपना बिजनैस है। उन की हार्डवेयर का दुकान है। वे 11 बजे आराम से अपनी दुकान पर जाते हैं। लेकिन शालिनी के साथ ऐसा नहीं है, उसे तो रोज टाइम से औफिस जाना होता है। वह कहती है कि मन करता है नौकरी छोड़ दूं। लेकिन बढ़ती महंगाई और फिर बच्चों की महंगी शिक्षा को देखते हुए नौकरी भी नहीं छोड़ सकती है। यह कहानी केवल शालिनी की नहीं है बल्कि दुनिया की लगभग सभी औरतों की है। खुद के लिए समय नहीं माधुरी टीचर है और पति, आलोक भी इसी फील्ड में हैं।
दोनों एक ही समय स्कूल के लिए निकलते हैं और घर भी सेम टाइम पहुंचते हैं। लेकिन घर आ कर जहां आलोक टीवी खोल कर बैठ जाते हैं, फोन पर दोस्तों से हाहा, हीही करते हैं, रील्स देखते हैं, वहीं माधुरी किचन में खाना पकाने घुस जाती है, बच्चों का होमवर्क कराती है और फिर बिखरे हुए घर को व्यवस्थित करती है क्योंकि सुबह उस के पास इतना टाइम नहीं होता कि यह सब कर सके। विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब