अमृत वचन
अमृत वचन
त्यागी तपस्वी सन्तों की एक - एक बात अमृत का वचन है लेकिन यह जीवन के आचरण में आये वो फलदायी होता है । मानव अपने जन्म के साथ ही जीवन, मरण, यश, अपयश, लाभ, हानि, स्वास्थ्य, बीमारी, देह, रंग, परिवार, समाज, देश और स्थान आदि सब पहले से ही निर्धारित करके आता है।भोगावली कर्म भोगने ही पड़ते है ।
इस अवसर्पिणी काल के २४वें व अंतिम तीर्थंकर प्रभु महावीर थे । वे महावीर यथा नाम तथा गुण वास्तव में वीर ही नहीं उससे बहुत आगे थे जिन्होंने कितने-कितने असहनीय परिषह सहे। उन्होंने अपनी खुद की लीक बनाई ।किसी अन्य प्रवाह में नहीं बहे।अहिंसा परमो धर्म जिनका मुख्य सिद्धांत था तथा जियो और जीने दो का उनका वाद था । जीवन को संयमित रखने के लिए जिनके मुख्यतया पाँच व्रत सत्य , अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, व अपरिग्रह थे । जिन्हें महाव्रत कहा जाता है ।
सामूहिक रूप से पंच महाव्रत कहलाते हैं । महावीर चिरंतनजीवन मूल्यों का स्वर्णिम शिखर हैं । प्रभु महावीर जैन संस्कृति के ही नहीं मानव मात्र के सारस्वत हस्ताक्षर हैं ।महावीर हमारा कर्म, हमारा धर्म और हमारी गति हैं । महावीर हमारी शक्ति, हमारी भक्ति व हमारी मति हैं । इसलिये धर्म सिर्फ हमारी चर्चा में ही नहीं चर्या में भी होना चाहिए । धर्म हमारे चरित्र में झलकना चाहिए न कि केवल इष्ट के चित्र में रहे ।
धर्म करना सार्थक तभी है जब वह आचरण में उतरे न कि केवल भगवद् नाम के उच्चारण में रहे ।धर्म हमारे दैनिक जीवन में हो न केवल जबान हो में उतरना चाहिए । धर्म करें उससे पहले हम धर्म के मर्म को जानें, आत्मवाद और कर्मवाद के रहस्य को ठीक से पहचाने। धर्म का रहस्य मात्र धर्म की बातें करना ही नहीं होता है,धर्म वह सत्य है जिसे जीकर आदमी अपने जीवन को संजोता है ।
धर्म हमारे जीवन का यथार्थ है और यथार्थ से ही परमार्थ मिलता है ।धर्म मात्र औपचारिकता नहीं है बल्कि यह जीवन जीने की कला है । इस कला का विकास कर सही राह की और अग्रसर होना है ।इस तरह एक-एक अमृत वचन हमारे जीवन का विकास करता है ।
प्रदीप छाजेड़ ( बोरावड़ )