विषय आमंत्रित रचना - बेटी
विषय आमंत्रित रचना - बेटी
किसी ने लिखा की हमारे देश की इज्जत और सम्मान बनती है ।सारे विश्व मे फिर खुद की वो पहचान बनती है । खडी़ होती है जब जब पोडियम पर हिन्द की बेटी तो मीरा बाई चानु के जैसी ही शान बनती है ।
चाहे खुशी मिलें या न मिलें समभाव में रहना सीखें हम ।कहना है आसान पर अमल करना मुश्किल ।आत्मा की शुभ करनी व सरलता है दुर्लभ । पहाड़ चढना आसान पर मुस्कुराहट उतनी ही कठिन हैं । सकारात्मकता से ही धर्म हमको सिखायें हंसते रहना । कांटों में भी फूल की तरह खिलना ।किसी से ईर्ष्या न करना ।
हीन भावना न रखना ।शुभ भविष्य की सदैव कल्पना करना । बेटा -बेटी - बहू में फर्क न समझना सचमुच सकारात्मक रहना है वीर की पहचान । इसके विपरीत कोई भी निषेधात्मकता या और कोई विधेयात्मकता चिन्तन बेटी - बहु में फर्क का तन-मन पर गहरा प्रभाव छोड़ता है । हमारा अच्छा-बुरा स्वभाव सोच से ही बनता है।
यदि सकारात्मकता का अभाव हो हममें तो सफल नहीं हो सकते कभी हम ।सकारात्मक चिन्तन हमारी Power Bank हैं । जो हर पल हमें charge करता रहता है । हमारे मानस को होश और जोश से तरा रखता है । विरोध हो या अवरोध- मन मायूसी और उदासी से दूर रहेगा , यदि विधेय चिन्तन का साथ भरपूर रहेगा ।
सकारात्मकता से ही हमारा चिन्तन परिपक्व बनेगा तो उसमें रिश्तों की गूढ़ता का स्वाद चढ़ेगा ।वह स्वस्थ-सुन्दर- उपयोगी बनेगा और उन्नति पथ की ओर बढ़ेगा । अपने भाव संकलित है ।पर अपने परिवारों में बड़ो का सम्मान है ।बच्चों के भावों का बहुमान है। विनय और वात्सल्य का अनुपान हैं ।
व्यवस्था या व्यवसाय के हिसाब से भले दूर रहते हों । पर मन में अपनत्त्व भरपूर हैं ।बेटी से बढ़ कर बहु होती है । बेटी अपने ससुराल की शान होती हैं ।बहु हमारी आन बान और पहचान हैं । सबसे बड़ी समृद्धि परिवार की बाद में बाकी व्यवहार की है । जैसे इंटेरनेट गूगल संसार के हर विषय की जानकारी रखता है ।ठीक वैसे ही हर घर का गूगल एक औरत ही होती है।
वो एक पत्नी भी होती है अपने बच्चों की माँ और दूर बैठे अपने माँ-बाप की बेटी का रोल भी अदा करती है। जब अपना मायका छोड़कर आती है ससुराल।जैसे-जैसे समय व्यतीत होता है जिम्मदारियों का दायरा भी बढ़ता जाता है।अपने जीवन काल में बेटी से शुरू हुयी यात्रा अंत में दादी-नानी तक पहुँच जाती है।
इस जीवन यात्रा के दौर में वो घर के हर सदस्य की चाहत किसको कब क्या चाहिए,टिफ़िन कब चाहिए और पता नहीं घर के साथ हर सदस्य को कब क्या चाहिये।यह उसे पता होता है।घर में अगर बुज़ुर्ग सास-ससुर है तो उनकी भी सेवा करनी और दूर बैठे अपने माँ-बाप के लिए आशा की किरण होती है।दूर होकर जितनी फ़िक्र एक बेटी करती है उतनी फ़िक्र घर का अन्य सदस्य नहीं करता हैं ।
वास्तव में औरत बहुत संवेदनशील होती है।घर के किसी भी सदस्य को अगर व्यथा है तो वो तुरंत भाँप लेती है।एक औरत जैसा प्यार,दुलार और ममता पुरुष नहीं दे सकते।क्योंकि ममता क्या होती है वो एक माँ ही जानती है।जब वो स्वयं माँ बनने का अनुभव कर लेती है। इसलिए आज भले ही बाहर की सारी जानकरियाँ गूगल के पास उपलब्ध हो।पर एक घर की और घर के हर सदस्य की गूगल उस घर की औरत ही होती है।
सहेजकर रखा था बचपन से आज रिश्तों का प्रेम बदल गया जो अकेला सजा था घर में वो फोटो फ्रेम बदल गया। फर्ज़ निभाते काम में उलझा हुआ समेट रहा था यादों को इधर पिता आंसू छुपाता रहा उधर बेटी का सरनेम बदल गया। प्रदीप छाजेड़