कामयाबी की कसौटी
कामयाबी की कसौटी
छोटी-छोटी सफलता के लम्हे भले ही क्षणिक हों, पर उनको एक लड़ी में पिरो दिया जाए तो कुछ अनोखा ही घटने लगता है। मन को असीम आनंद प्राप्त होता है। मसलन, बुखार होने पर भी खुद अपनी सही से देखभाल कर लेना । अपने लिए चाय खुद बनाना, किसी पंछी के लिए जूते के डिब्बे से घोंसला तैयार करना। यह ऐसी सुदर्शन और उपयोगी छोटी-छोटी बातें हैं कि आज विकसित देशों में अवसाद से उबरने के लिए कार्यशालाओं में इन तकनीकों का प्रयोग कर सकारात्मक रूप से सफलता पा रहे हैं। दरअसल, छोटी- छोटी सफलता से मिलने वाला संतोष एक ऐसी अनमोल भावना है, जिसे हम भीतर से महसूस करते हैं। इनकी याद भी रोमांचित कर देती है।
दस मिनट में एक किलो मटर छील देना या एक दिन बाहर से बोतलबंद पानी न पीकर हैंडपंप या चापाकल तलाश करना भले ही औरों की नजर में बेहद सामान्य बात हो, मगर हमारे अनुभव के हिसाब से वह बेहद सुकूनदायक होती है। खुद लगाए गमले में फूल खिल जाए और वहां तितली भी आ जाए। यह एक ऐसी सफलता है, जिसे जागरूक लोग नजरअंदाज नहीं करते, बल्कि इस खुशी की दवा को तन-मन से ग्रहण कर खुद को मानसिक रूप से सेहतमंद रखते हैं। कुछ लोग पैसा, नाम और सम्मान को महत्त्व देते हैं। ये जीवन में सुविधा और आडंबरी चमक-दमक लाने में सहयोग करते हैं। लेकिन इस क्रम में लोग अपनी सरलता को दरकिनार कर रहे हैं। चकाचौंध भरी सफलता बहुत सारे लोगों के दिल के समुद्री ज्वार की तरह ठाठें मारने लगती है। एक युग ऐसा भी था कि मनुष्य अपने मानव समाज के लिए पूजा के फूल की तरह भेंट चढ़ाने में खुद को संपूर्ण मानता था। अब तमाशा यह है कि भ्रष्टतम होने के लिए लोग चांदी का जूता खुशी-खुशी खा लेते हैं कि इससे सफलता का वरण हो सकेगा।
फिर झूठी सफलता की बेहोशी के आलम में डूबे रहते हैं। कुछ लोग इन चीजों को ही असली सफलता नहीं मानते हैं। वे पंछियों को पिंजरे से आजाद कराना, झील के आसपास गंदगी न रहने देना, बगीचे के पौधों को सूखने से बचाना आदि में आनंद पा लेते हैं। इसके विपरीत कुछ लोग खूब दौलत एक 'करने को जीवन की सफलता मानते हैं। नाम, दाम और सम्मान को ही सफलता का पर्याय मान बैठते हैं। वे अपने रास्ते में आने वाली छोटी-छोटी सफलताओं को महत्त्व नहीं देते। मिसाल के तौर पर, किसी गरीब को तन भर कपड़ा, किसी का चुपचाप इलाज कराना, किसी से बहस न करके उसको विजेता बना देना या फिर अपना समय देकर किसी का अकेलापन भर देना उसको जताए बगैर। वे ऐसी बातों से जानबूझकर अपनी नजर फेर लेते हैं। हालांकि उनकी दिनचर्या भी आगे जाकर रंग दिखाने लगती है । कठोर बनकर सोने के सिक्के जमा करने का और खुद को कामयाब कहने का उनका यह नशा उनके सिर पर चढ़ने लगता है। धन की भारी झोली एक दिन उनके कपाल पर ही फट पड़ती है। उस समय उनकी पीड़ा बढ़ जाती है, जब मंहगा पलंग, कीमती भोजन, उच्च और खर्चीला जीवन-स्तर उनको मुहब्बत और आत्मिक सुख नहीं दे पाते हैं । फिर ऐसा दौर भी आता है कि ऐसे लोग जल्दी ही तनाव में घिरने लगते हैं। कुंठा की एक छोटी-सी चिंगारी भी महाविस्फोट कर सकती है। वे संभल नहीं पाते। निराशा उनको चिंदी - चिंदी करके बिखेर देती है। उनके मस्तिष्क का संयोजन ही कुछ ऐसा होता है।
आज विश्व स्तर पर जीवन परंपरा को सुधारने की कवायद चल रही है। हमको गिलास आधा भरा दिखाई देता है या आधा खाली, आज एक सफल जीवन इसी फलसफे के इर्द-गिर्द घूम रहा है। हमें धन दौलत के ढेर में केवल जिंदा नहीं रहना है, जीवन को जीना भी है। इसलिए भौतिकवाद की तरफ कम झुककर समाज, कुदरत और दूसरों की खुशी से मन ही मन लगाव रखना भी एक सफल जीवन का संकेत माना जा रहा है। दुनियाभर में अब कुछ दौलतमंद भी न केवल आत्महत्या कर रहे हैं, बल्कि उनके विक्षिप्त होने के मामले भी लगातार बढ़ रहे हैं। उनको ऐसा लगने लगा है कि कीमती से कीमती जीवन को तो जी लिया । अब शायद उनकी जिंदगी का कोई मकसद नहीं बचा। अगर कभी सीखा होता तो शायद वे जान लेते कि बाहर धूप में भूखे-प्यासे पंछी जरा-सा दाना- पानी पाकर उनको जीवन शक्ति देने वाले हैं। उनके मानसिक आवेग को किसी हद तक पाटने कोई आए भी तो कौन ? देर-सवेर दौलत का कटु यथार्थ कंटक-सा चुभने लगता है। उनकी सफलता फिर उन पर ही उल्टा तीर लगाने लगती है। कोई छोटा-सा काम करके सफल होने में वह ताकत होती है कि आनंद उस समय अपनी संपूर्ण हार्दिकता में होता है। पूरी कायनात पीठ थपथपाकर शाबाशी दे रही होती है। कुछ दार्शनिक ऐसा भी कहते हैं। कि ऊर्जावान रहना ही मानव होने की एक शर्त है।
इस संसार के बेहद निराले रंग- रूप हैं, मगर यह उनका ही माना जाता है जो आशावादी हैं और जरा-सी प्यारी बात को भी दिल से महसूस करते हैं। किसी बुजुर्ग या असहाय सहयात्री को अपनी सुकून भरी सीट देकर खुद खड़े होकर यात्रा पूरी करते हुए लोग मन ही मन आनंद के पंख लगाकर उड़ रहे होते हैं। ऐसा करके वे अपने भीतर एक उत्पादक और सकारात्मक ऊर्जा को पनपने का अवसर देते हैं। आज सारा संसार कृत्रिम विकास के नाम पर कृत्रिम विनाश की ही तरफ बढ़ता जा रहा है। सफल और कामयाब शब्द आज कारपोरेट की उपज हैं। ये अपने और पराए की उलझनों को बढ़ा रहे हैं । अछोर सुरंग जैसे ये गहरे अंधेरे हमारी सीमित सांसों को कहीं लील न जाएं। छोटी-सी बात से उत्पन्न होने वाली ताली, आंसू या खिलखिलाहट भरी हंसी को आज कारपोरेट के तालाबंद कमरे से बाहर निकालना जरूरी हो गया है। जीवन की ओर मन की आंखें खोलकर हम सबको अपनी सफलता के उजाले खुद तय करने चाहिए।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब