जलवायु संकट और दूर होते लक्ष्य

जलवायु संकट और दूर होते लक्ष्य

Oct 21, 2024 - 13:38
 0  9
जलवायु संकट और दूर होते लक्ष्य
Follow:

जलवायु संकट और दूर होते लक्ष्य जलवायु संकट दिनोंदिन गहरा रहा है। हर वर्ष गर्मी कुछ बढ़ी हुई दर्ज होने लगी है। वैश्विक ताप और इससे जुड़े हर आंकड़े लगातार बढ़ते संकट की ओर इशारा कर रहे हैं। जलवायु संकट से निपटने के लिए निर्धारित किए गए लक्ष्यों और उन्हें हासिल करने के लिए किए रहे प्रयासों के बीच बहुत बड़ा अंतर है, जो अब और बढ़ रहा है। वायुमंडल में पृथ्वी के तापमान को बढ़ाने वाली गैसों की मात्रा चरम पर है। ब्लूमबर्ग के आनलाइन आंकड़ों के मुताबिक अभी वायुमंडल में कार्बन डाइआक्साइड का ग्राफ 421.44 पीपीएम तक जा पहुंचा है, जो पृथ्वी के संतुलित तापमान के लिए जरूरी (350 पीपीएम) पैमाने से 71.44 ज्यादा है। लगभग 23 'मार्केटर रिसर्च', बर्लिन के ताजा आंकड़ों के अनुसार, हमारी वर्तमान तैयारियां पेरिस जलवायु समझौते के लक्ष्यों से बहुत पीछे हैं।

यही स्थिति रही, तो पृथ्वी का औसत तापमान अगले चार साल और नौ महीने में 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा। वहीं 2.0 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि को पार करने में साल का समय शेष है। यह ध्यान देने योग्य है कि ये दोनों लक्ष्य वैश्विक स्तर पर इस सदी के अंत तक के लिए, लंबे विचार-विमर्श और खींचतान के बाद, 2015 में पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते में निर्धारित किए गए थे। इसे अब तक का सबसे आशावादी समझौता माना गया था। इसके बावजूद वैश्विक तापमान में वृद्धि लगातार होती जा रही है। 'यूनाइटेड इन साइंस' की रपट तो और भी भयावह तस्वीर प्रस्तुत करती है। इसमें कहा गया है कि वर्तमान नीतियों के तहत, इस सदी के अंत तक वैश्विक तापमान के तीन डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने की संभावना है। यह जलवायु संकट से बचाव के लिए गंभीर चेतावनी है। हालांकि ऐसा नहीं है कि पेरिस समझौते से पहले के एक दशक में कोई प्रभावी काम नहीं हुआ। जब यह समझौता 2015 में लागू हुआ, उस समय अनुमान था कि 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा सोलह फीसद बढ़ेगी, लेकिन इस दौरान किए गए वैश्विक प्रयासों का ही परिणाम है कि 2030 तक यह अनुमानित वृद्धि घट कर तीन फीसद तक आ गई है।

फिर भी यह प्रयास अभी भी पर्याप्त नहीं है। पेरिस जलवायु समझौते के अनुसार, पृथ्वी के बढ़ते तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे सीमित करने के लिए 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में क्रमशः 28 और 42 फीसद की कमी होनी चाहिए थी। मगर हम अब भी उत्सर्जन कम करने के बजाय उसमें कम से कम तीन फीसद की वृद्धि की राह पर हैं। अगर जलवायु परिवर्तन के कारणों और इसके प्रभावों पर नजर डालें, तो हर स्तर पर न केवल एक असमान व्यवस्था जिम्मेदार दिखती है, बल्कि इसका प्रभाव भी वैश्विक स्तर पर अलग-अलग दिखाई देता है। सामान्यतया यह कहा जा सकता है कि जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक प्रभाव उन लोगों या क्षेत्रों पर पड़ता है, जिनका इसमें योगदान बहुत कम या नगण्य होता है। यह समझ जलवायु विमर्श की शुरुआत से ही बननी शुरू हो गई थी, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1972 में आयोजित स्टॉकहोम सम्मेलन में पर्यावरणीय क्षरण को गरीबी के नजरिए से देखने की वकालत की थी। मौजूदा जलवायु संकट और पर्यावरण क्षरण का स्वरूप व्यापक और वैश्विक है, लेकिन उससे निपटने की आर्थिक क्षमता प्रत्येक देश में असमान विकास की वजह से अलग-अलग है। इस असमानता के कारण, पिछले पांच दशकों में कई समझौते किए गए और अनेक बैठकें आयोजित की गई, लेकिन ओजोन परत के छिद्र को छोड़ कर किसी भी क्षेत्र में प्रभावी कदम नहीं उठाए जा सके।

इसके साथ-साथ, बढ़ते जलवायु संकट में पश्चिमी या विकसित देशों का योगदान अधिक रहा है, इसलिए उनकी जिम्मेदारी भी उसी अनुपात में होनी चाहिए, लेकिन मौजूदा वैश्विक संदर्भ में ऐसा नहीं दिखता। वैश्विक परिदृश्य में पारदर्शिता बढ़ने के बावजूद, सभी देशों के बीच 'क्षमता के अनुसार साझा, लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों' के सिद्धांत पर केवल सैद्धांतिक सहमति बनी है। इस सिद्धांत को व्यावहारिक रूप में लागू करने में विकसित देश किसी भी प्रकार की संजीदगी नहीं दिखा रहे हैं। वहीं, विकासशील देशों, जैसे भारत और ब्राजील, की प्राथमिकताएं अपनी विशाल जनसंख्या को बुनियादी संसाधन मुहैया कराने पर केंद्रित हैं। दूसरी ओर, गरीब देश, विशेषकर समुद्री किनारों पर बसे या द्वीपीय देश, मौजूदा वैश्विक आर्थिक तंत्र के शिकार बन रहे और जलवायु संकट का सबसे अधिक दंश झेल रहे हैं। मौजूदा जलवायु संकट पर सबसे अधिक प्रभाव आर्थिक नीतियों का है, विशेषकर तब जब पेरिस जलवायु समझौते के तहत उत्सर्जन को कम करने के लिए 2030 और 2050 के स्पष्ट लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं। किसी भी आर्थिक गतिविधि पर लागू कर की दर या उसमें दी गई छूट इस बात का संकेत देती है कि जलवायु संकट से निपटने के हमारे प्रयास कितने प्रभावी हैं। इसका कारण यह है कि हर आर्थिक गतिविधि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वैश्विक तापमान वृद्धि के लिए जिम्मेदार उत्सर्जन से जुड़ी से होती ।

मसलन, आज भी जीवाश्म ईंधन ऊर्जा का सबसे सस्ता और सुलभ स्रोत है और इसके उत्पादन और उपयोग पर अभी भी सरकारी मदद दी जा रही है, जो स्पष्ट रूप से जलवायु संकट को बढ़ावा देने वाली नीति है। विकासशील देश इसी व्यवस्था पर निर्भर हैं, क्योंकि उनके पास हरित ऊर्जा विकसित करने के लिए न तो पर्याप्त संसाधन हैं और न ही विकसित देशों से तकनीकी सहायता और आर्थिक साधन मिल रहे हैं। यह भी ध्यान देने योग्य है कि जलवायु संकट में मौजूदा वित्तीय व्यवस्था, प्रमुख अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं जैसे अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजंसी, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन और अन्य संस्थाओं के दशकों से चले आ रहे आग्रह के बावजूद, कार्बन उत्सर्जन बढ़ाने वाली परियोजनाओं को अनुदान दे रही है, जबकि स्थिति इसके विपरीत होनी चाहिए थी। देश की राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियां, जिनमें औद्योगिक क्षेत्र का दबाव समूह या 'कारपोरेट लाबी' भी शामिल है, ऐसी वित्तीय व्यवस्था के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है, कार्बन उत्सर्जन को प्रोत्साहित करती है। वैश्विक दक्षिण के देशों में कारपोरेट का व्यवहार एक परजीवी के समान है, जो सार्वजनिक धन को विकास की आवश्यकताओं जैसे गरीबी और पिछड़ेपन की आड़ में अनुदान के रूप में जलवायु संकट से संबंधित परियोजनाओं में झोंक कर मुनाफा कमा रहा है। 'एक्शन ऐड' की मौजूदा रपट अधिकांश देशों, विशेषकर वैश्विक दक्षिण के देशों में, सार्वजनिक वित्तीय व्यवस्था पर कारपोरेट लाबी के प्रभावी पकड़ को जिम्मेदार बताती है। इसमें विकसित देशों द्वारा पेरिस जलवायु समझौते के तहत 'जलवायु वित्त' के खोखले वादों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान है।

जलवायु संकट अब अपने विकराल रूप में आ चुका है। ऐसे में कारपोरेट को अपनी जिम्मेदारियों को समझना होगा और वैश्विक समुदाय को लाबी संस्कृति पर नियंत्रण लगाना होगा, ताकि सार्वजनिक वित्त का उपयोग जलवायु संकट को कम करने और इसके प्रभावों से बचाव के लिए आवश्यक क्षमता के विस्तार में किया जा सके। विकसित देशों को भी वैश्विक ताप में अपने योगदान और असमान विश्व के निर्माण में अपनी भूमिका को स्वीकार कर 'क्षमता के अनुसार साझा, लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों' के सिद्धांत में बाधा डालने से बचना होगा। विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब [2 पराली निस्तारण के उपाय विजय गर्ग पराली का निस्तारण एक गंभीर समस्या है। पराली जलाने से हुए प्रदूषण से निपटने के दावे हर साल किए जाते हैं, लेकिन विडंबना यह है कि आज तक इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं निकल सका है। इस बारे में दावे भले बराबर किए जाएं, लेकिन हकीकत में यह समस्या हर साल और विकराल होती जा रही है। दुखदई बात यह है कि सरकारें इस बाबत तब होश में आती हैं, जब इस समस्या के चलते वायु प्रदूषण में बेतहाशा बढ़ोतरी से लोगों का संस लेना दूभर हो जाता है। देखा जाए तो पराली जलाने से हर साल राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, उत्तर प्रदेश का पश्चिमी हिस्सा, हरियाणा और पंजाब अक्टूबर से लेकर दिसंबर तक भयावह वायु प्रदूषण की चपेट में रहता है।

ये महीने यहां के लोगों के लिए मुसीबत बनकर आते हैं, क्योंकि इन राज्यों की सरकारों द्वारा इसे रोकने की दिशा में किए गए सारे प्रयास, अभियान और किसानों को जागरूक करने के सभी कदम बेमानी साबित हो जाते हैं। दुष्परिणामस्वरूप वायु प्रदूषण की गंभीरता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है और सरकारें इसके समने बेबस नजर आती हैं। यह सब तब होता है, जब पराली जलाने पर पाबंद है। सुप्रीम कोर्ट भी इस बाबत गंभीर चिंता जाहिर कर चुका हैं कि यह कैसा प्रबंधन है कि प्रतिबंध के बावजूद पराली जलाई जा रही है। इससे यह भी साबित होता है कि प्रदूषण की रोकथाम के वे हवा-हवाई हैं। जहरीली हवा में सांस राजधानी में बढ़ते वायु प्रदूषण के चलते यहाँ के लोग जहरीली हवा में सांस लेने के लिए मजबूर हैं। दिल्ली में इस कारण बड़ी संख्या में लोग अस्थमा से पीड़ित हैं। नतीजन पहले से ही अस्थमा से परेशान लोगों के लिए बढ़ता वायु प्रदूषण जानलेवा बन जाता है। ऐसे हालात में अस्थमा के रोगियों का बढ़ना खतरनाक संकेत है। वैसे भी मौसम में आ रहे बदलाव के चलते प्रदूषण बढ़ रहा है। पंजाब में अभी तक पराली जलाने की घटनाओं में नौ गुना बढ़ोतरी दर्ज की गई है। माना जा रहा है कि पंजाब में इस बार धान की कटाई के बाद 200 लाख टन पराली बचेगी, जबकि राज्य का लक्ष्य लगभग 20 लाख टन पराली के प्रबंधन का ही है।

जाहिर है, शेष पराली प्रबंधन के अभाव में जलाई हो जाएगी। वैसे पराली निस्तारण के लिए पंजाब सरकार ने 58 कंप्रैस्ड बायें गैस प्लांट लगाने की मंजूरी तो दे दी है, लेकिन उसके पास पराली का भंडारण करने के लिए जमीन ही नहीं है। पर्यावरण स्वच्छता पर्यावरण को स्वच्छ रखना हम सबका दायित्व है। स्वच्छ पर्यावरण सुनिश्चित करना केंद्र, राज्य समाज और लोगों की संयुक्त जिम्मेदारी है। इसे सभी को ईमानदारी से निबाहना चाहिए। लेकिन इसमें हम विफल रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है कि खास तौर पर जब सर्दियों में आसमान धुंध और विषाक्त गैस से घिरा होता है, केवल उस समय ही नहीं, बल्कि पूरे साल के लिए वायु प्रदूषण नियंत्रित करने के लिए एक समन्वित कार्य योजना बनाई जाए। पूरे देश में वायु प्रदूषण की स्थिति का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। बीते बरस दिल्ली हाई कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी जिसमें कहा गया था कि पड़ोसी राज्यों के किसानों द्वारा पराली जलाए जाने से हर साल राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में इस दौरान वायु प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है।

इस पर लगाम लगाई जानी चाहिए और पराली से कंपोस्ट खाद बनाए जाने पर जोर दिया जाना चाहिए। ऐसा करने से दोहरा लाभ होगा। खाद बनाने से बढ़ते प्रदूषण पर लगाम लगेगी और दूसरी और किसान इस खाद का उपयोग कर बेहतर और रसायन विहीन पैदावार हासिल कर सकेंगे। अन्य कारकों की भूमिका वायु प्रदूषण में पराली की अहम भूमिका है, लेकिन सड़कों की धूल एवं वहां फैले कूड़े व बायोमास का भी इसमें महत्वपूर्ण योगदान है। इससे वातावरण में जहर के काकटेल का निर्माण होता है। वातावरण में सबसे अधिक घातक अजैविक एयरोसेल का निर्माण, बिजलीघरों, उद्योगों, ट्रैफिक से निकलने वाली सल्फ्यूरिक एसिड और नाइट्रोजन आक्साइड तथा कृषि कार्य से पैदा होने वाले अमोनिया के मेल से होता है। लगभग 23 प्रतिशत वायु प्रदूषण की वजह यह काकटेल ही है। दिल्ली में बाय प्रदूषण का जायजा लें तो पता चलता है कि धुंध का 20 प्रतिशत उत्सर्जन दिल्ली के वाहनों से, 60 प्रतिशत दिल्ली के बाहर के वाहनों से तथा 20 प्रतिशत के आसपास बायेमास जलाने से होता है। इस संदर्भ में किए गए अनेक हालिया शोध अध्ययनों में यह दर्शाने का प्रयास किया गया है कि वायु प्रदूषण की समस्या किसी युद्ध की विभीषिका की आशंका से कम नहीं है इसलिए विकास का दावा उसी स्थिति में कारगर हो सकता है, जब वायु प्रदूषण की समस्या का समाधान हम अपने देश की वर्तमान परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए निकालने का प्रयास करें।

 विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब

अस्वास्थ्यकर खाद्य पदार्थ तबाही मचा रहे हैं विजय गर्ग भोजन इस ग्रह पर प्रत्येक व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकता है। हमें अपने भोजन से ऊर्जा और आवश्यक सूक्ष्म और स्थूल पोषक तत्व मिलते हैं। लेकिन आजकल यह बुनियादी आवश्यकता इसकी सामग्री में विभिन्न प्रकार की मिलावट से ग्रस्त है। हम अपनी खाद्य शृंखला में अपनी अज्ञानता या अपनी मजबूरी के कारण बहुत सारे कीटनाशकों, कीटनाशकों और अन्य प्रकार के खरपतवारनाशी रसायनों का लगातार उपयोग कर रहे हैं। क्योंकि आजकल विभिन्न प्रकार के कीटों से छुटकारा पाने के लिए हमारी वनस्पतियों और अन्य खाद्य पदार्थों में इस प्रकार के रसायनों का उपयोग करना बहुत अनिवार्य हो गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसे कीटनाशक हमारी वनस्पति के लिए, उनकी अधिकतम उपज और सुरक्षा के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। लेकिन एक कहावत है कि अति हर चीज की बुरी होती है। ऐसे रसायनों का उपयोग करने की हमारी अति निर्भरता की आदत हमारे लिए विनाश पैदा कर रही है। क्योंकि हम जानते हैं कि अंततः ये हानिकारक रसायन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारी खाद्य शृंखला में प्रवेश कर जाते हैं। आजकल हम विभिन्न प्रकार के हानिकारक खरपतवारों और अवांछित घास के उन्मूलन के लिए अक्सर कीटनाशकों का उपयोग कर रहे हैं।

 यहां तक ​​कि मक्का और गेहूं जैसी हमारी मुख्य फसलों में भी हम उचित उपज प्राप्त करने के लिए हर साल लगातार ऐसे कीटनाशकों का उपयोग कर रहे हैं। यहां तक ​​कि हमारी सब्जियों और फलों में भी बहुत सारे रसायन और संरक्षक होते हैं। हमारे बाजार पूरे वर्ष हर प्रकार के फलों और सब्जियों से भरे रहते हैं। यहां तक ​​कि हम पूरे वर्ष अपने बाजारों से बेमौसमी फल और सब्जियां भी प्राप्त करते हैं। हालाँकि हम आम तौर पर इन खाद्य पदार्थों को उनके उपभोग से पहले धोते हैं। लेकिन इन रसायनों का कुछ प्रतिशत आम तौर पर इन खाद्य पदार्थों में निहित होता है। अंततः ऐसे सभी हानिकारक रसायन धीरे-धीरे हमारी खाद्य शृंखला में प्रवेश कर जाते हैं। परिणामस्वरूप हमने पाया है कि अधिकतर लोग बहुत सी एलर्जी प्रतिक्रियाओं और अन्य स्वास्थ्य बीमारियों से पीड़ित हैं। इसके विपरीत हम इन प्रतिक्रियाओं और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए विभिन्न प्रकार के एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग करते हैं। और वो एलोपैथिक दवाइयां हमारे लिए और भी मुसीबत खड़ी कर रही हैं। हम इस कहर से कैसे छुटकारा पाएं, ये हम सभी के लिए ज्वलंत मुद्दा है। हमारा मानना ​​है कि इस खतरे का सबसे प्रशंसनीय समाधान जैविक उत्पादों और खाद्य पदार्थों का उपयोग है। जैविक खेती के प्रयोग से हम इन रसायनों के दुष्प्रभाव से छुटकारा पा सकते हैं। हालाँकि, जैविक खेती में हमें वांछित और पर्याप्त मात्रा में फसल की पैदावार नहीं मिल पाती है।

लेकिन, यह हमें कई स्वास्थ्य लाभ दे सकता है। हमारे लिए केवल दो ही विकल्प उपलब्ध हैं, यदि हम ऐसे रसायनों का उपयोग करते हैं तो हमें अधिक उत्पादन मिलेगा और यदि हम जैविक खेती का उपयोग करते हैं तो हमें कम उत्पादन मिलेगा लेकिन शुद्ध और स्वच्छ। विकल्प हमारा है, लेकिन हम अपने स्वास्थ्य के साथ समझौता नहीं कर सकते। अस्वास्थ्यकर और मिलावटी खाद्य पदार्थों की चाहत में। ये हानिकारक रसायन धीरे-धीरे भूजल और हमारी मिट्टी में प्रवेश करते हैं और इन प्राकृतिक संसाधनों की मूल बनावट और गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं। हालाँकि ये हानिकारक रसायन न केवल इस धरती पर मनुष्यों के जीवन को प्रभावित कर रहे हैं, बल्कि अन्य निम्न प्राणियों पर भी विभिन्न प्रकार के प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं। इन रसायनों से अनेक लाभकारी सूक्ष्मजीव प्रभावित होते हैं। ऐसे हानिकारक उत्पादों के अत्यधिक उपयोग से विभिन्न अन्य निचले प्राणियों के आवास सहित हमारा पूरा पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होता है। हमारी खाद्य शृंखला के इस डिज़ाइन को बदलने की तत्काल आवश्यकता है। अन्यथा आने वाले दिनों में इन रसायनों के कारण हमें और अधिक परेशानी होगी। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि हमारे खाद्य उत्पादों में ऐसे रसायनों के अत्यधिक उपयोग के कारण होमोसेपियंस का जीवन धीरे-धीरे केमिकोसैपियंस में परिवर्तित हो रहा है। इस दिशा में जन जागरूकता की नितांत आवश्यकता है। हमारा कृषिविशेषज्ञ इस समस्या की गंभीरता को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं, वे हमारे किसानों को इस दिशा में अधिक सहज तरीके से मदद कर सकते हैं। हालाँकि वे पहले से ही इस दिशा में काम कर रहे हैं लेकिन वर्तमान समय में इस पर और अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।

एक तरफ हम अपने स्वास्थ्य के लिए विभिन्न उपायों और योजनाओं को बढ़ावा दे रहे हैं तो दूसरी तरफ हम अस्वास्थ्यकर भोजन की इस धीमी विषाक्तता को प्राथमिकता दे रहे हैं। विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब [4) मुखौटे वाली भीड़ विजय गर्ग अलग-अलग शहरों, कस्बों और गांवों में निर्मित हो रही एक तरह की भीड़ एक विचित्र सामूहिक नशे की शिकार लगती है। यह आवेशित भीड़ कई बार अश्लीलता की हद तक तेज बजते गानों पर उन्मादी शोर में डूबी दिखती है, जो रोटी-रोजगार के सवाल को भूल चुकी दिखती है । अलग-अलग ‘ब्रांड' के रहनुमाओं के पीछे भाग रही यह भीड़ पुस्तकालय और विद्यालय से बेखबर दिखती है। नवनिर्मित और दिनोंदिन बढ़ती जा रही इस भीड़ की फसल को देख अलग-अलग रूप धरे धार्मिक और राजनीतिक व्यापारी प्रसन्न होते जा रहे हैं। कई बार कुछ रहनुमा जैसे लोग अलग-अलग वेश में भीड़ में उत्साह का संचार करते दिखते हैं। धार्मिक-राजनीतिक आकाओं के नए-नए फरमान इंसान को सिर्फ इंसान नहीं बनने देना चाहते हैं। लोगों के होठ तो सूख ही रहे हैं, आंखों का पानी भी सूखता जा रहा है। इंसान और इंसानियत से ज्यादा और भी कुछ महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है, जिसे शायद नहीं होना चाहिए था । ये सवाल गौण हैं कि कौन पढ़ने देना चाहता है... क्यों पढ़ने दिया जाए... इतनी हिम्मत बची है जो पढ़ोगे, आदि ! किताब की दुकानें सिमटती जा रही हैं। महामारी के पहले लगभग सभी स्टेशनों पर किताब की समृद्ध दुकानें थीं। वे आज बंद हो रही हैं या उन्हें समेट दिया गया है। किताब की जगहों पर चिप्स, कुरकुरे, बिस्किट पैर पसार चुके हैं। पुस्तकालयों को बर्बाद होते देखा जा सकता है। विद्यालयों में बच्चे किताबों का इंतजार कर रहे हैं। युवा पीढ़ी डीजे की ऊंची धुनों पर सिर्फ थिरक रही है। सरकारी नौकरी के लिए पागल, लेकिन निजीकरण का समर्थक मध्यवर्ग ऊंचे दाम देकर अपने बच्चों को दड़बेनुमा कमरों में रटने की मशीन बनाने पर आमादा है।

 वाट्सएप, फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया मंचों से ज्ञान प्राप्त करती आधुनिक संतानें बर्बाद होते संस्थानों के दौर में संदेश आगे भेजने और ' रील' बनाने की मशीन बनती जा रही हैं। पठनीयता में गिरावट से सबको लाभ है। बाजार के जाल को समझना आसान नहीं है। मतदाता से समर्थक में तब्दील हुई भीड़ में सरकारों से सवाल पूछने की हिम्मत ही कहां बची है! हम दुर्भाग्य में धकेली हुई भीड़ हैं। इस बनाई हुई भीड़ को गुमराह करके दूसरे रास्तों पर हांक दिया जाता है। सरकारी अस्पतालों की तस्वीरें अलग कहानी बयान करती हैं। यों भी तस्वीरें एक मुखौटा लगाए रहती हैं। बदहाल सरकारी अस्पताल भीड़ से भरे जा रहे हैं। प्रतिदिन दर्द से कराहते लोग थोड़ी-सी बची जिंदगी से लंबी लाइनों में लग जाते हैं। हाथ में पर्ची लिए एक कक्ष से दूसरे में भागते हुए लोग थक कर जिंदगी को कोसते हुए रिश्तों से भी कमजोर किसी दीवार के सहारे बैठ जाते हैं। सुदूर अंचल से आए हुए लोग 'ओपीडी' की न बढ़ने वाली भीड़ में से गार्ड से बस एक बार डाक्टर साहब को दिखाने की मन्नत मांगते हैं। जांच कक्ष में जिंदगी के हैरतअंगेज कारनामों से मुखातिब कराती मशीनें जैसे अब तक किए गए कर्मों का हिसाब लिख रही होती हैं। अब तक निगले गए निवालों से अहम दवाइयों की लाइन में जेब को टटोलती कांपती कलाइयां जैसे जिंदगी के अवसान के आखिरी पल की गवाह बनती हैं। इस भीड़ का हिस्सा बन जिंदगी को और जी लेने की जद्दोजहद में जब हम संघर्ष कर रहे होते हैं, तभी हमें जिंदगी की नश्वरता की वास्तविक ध्वनि कानों में सुनाई पड़ती है।

लगता है, देवताओं इंसानों की प्रार्थना कबूल करने से इनकार कर दिया है ! गांव अपनी बेबसी के साथ हताशा के स्वर में जैसे बुदबुदा रहे हैं । टेलीविजन के अनुसार राय बनाता शहरी वर्ग मानो एक आयाम समझ और हताशा का शिकार होकर अब घुटन को विवश है। गांव और शहर के कुछ रास्ते ऐसे हैं कि इन रास्तों पर कोई नहीं आता, बस भूख आती है। भूख हर रोज आती है, क्योंकि भूख का कोई रविवार नहीं है। समाज का एक वर्ग ऐसा भी है कि भूख और सब्र उसके पेट का परीक्षण प्रतिदिन करते हैं। हम स्वार्थ की भाषा और लाभ की आवाज के अतिरिक्त कुछ भी नहीं सुन पा रहे हैं। अगर हम बाहर की यात्रा को भूलकर एक बार अंदर की यात्रा करें तो सत्य कितने खराब रूप में प्रकट होता है ! हमारे सामाजिक, पारिवारिक सभी रिश्ते कितने खोखले होते जा रहे हैं! कितनी अर्थहीन संरचनाओं के बीच जीने के लिए विवश हैं हम लोग । एक व्यक्ति के रूप में व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं रह गया है। एक इंसान के रूप में इंसान का कोई महत्त्व नहीं है। हमारे छोटे-छोटे अहंकार और हित, किसी की आंखों के बड़े ख्वाबों को निर्दयतापूर्वक कुचल रहे हैं। मनुष्य होने का जो मूल है- आवेग, भावनाएं, रुदन, मुस्कुराहट, वही रौंद दी जा रही हैं। हम किसी न किसी प्रकार के नशे के आगोश में हैं। क्या करना है, क्या करना चाहिए और क्या कर रहे हैं। स्वार्थ इतनी हावी है कि इंसान धीरे धीरे उपभोग की वस्तु बनता जा रहा है। हमें वस्तुओं का इस्तेमाल करना और रिश्तों को सहेजना चाहिए था, लेकिन हम रिश्तों का इस्तेमाल कर रहे हैं और वस्तुओं को सहेज रहे हैं। सच की आंच पर किसी भी रिश्ते को एक बार परख कर देखें, हल्की-सी तपिश पर पिघल कर अपने वास्तविक और विकृत स्वरूप में सामने आता है। सबके अपने तर्क, कसौटी और जीने के पैमाने हैं जो स्वाभाविक है, पर एक इंसान बनने की प्राथमिक पैमाने पर हम विफल हो रहे हैं। सजग होकर देखने पर सब कुछ कितना पारदर्शी तरीके से दिखता है। कितने खराब स्वरूप में चीजें क्रमिक रूप से विकसित और वैध होती जा रही हैं। एक इंसान के रूप में हमारे लिए यह सब स्वीकार कर पाना कठिन है, पर ठहर कर सोचने पर यह प्रश्न हमारा पीछा जरूर करता है कि क्या हम सचमुच इंसान बनने की प्रक्रिया में भी हैं ?

विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब