क्या अमेरिका का जवाब चीन हो सकता है ?

Aug 30, 2025 - 19:56
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क्या अमेरिका का जवाब चीन हो सकता है ?

क्या अमेरिका का जवाब चीन हो सकता है ?

राजेश कुमार पासी

डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारत पर 50 प्रतिशत टैरिफ लगाने के बाद भारत की चीन से नजदीकी बढ़ने की उम्मीद लगाई जा रही है । कुछ लोगों को ऐसा लग रहा है कि भारत रूस और चीन के साथ मिलकर अमेरिका के टैरिफ का मुकाबला करना चाहता है । दूसरी तरफ भारत में समाचार पत्रों में लेख लिखकर चीन के इतिहास का डर दिखाया जा रहा है कि चीन भारत के लिए भरोसेमंद दोस्त नहीं है । देखा जाए तो ज्यादातर विश्लेषकों द्वारा चीन के साथ रिश्तों में सतर्कता बरतने की सलाह दी जा रही है । सवाल यह है कि क्या सच में हमारी सरकार अमेरिका का जवाब रूस और चीन में देख रही है । रूस तो हमारा सदाबहार दोस्त हैं तो उसके साथ रिश्तों में ज्यादा कुछ नया होने की उम्मीद नहीं की जा सकती लेकिन चीन के साथ रिश्तें नई उम्मीद पैदा कर रहे हैं ।

हमें चीन के साथ संबंधों को बढ़ाने की कोशिश को अमेरिका के जवाब के रूप में नहीं देखना चाहिए क्योंकि भारत के साथ अमेरिका के ऐसे संबंध हैं कि चीन उसका जवाब कभी नहीं बन सकता। अमेरिका को ग्रेट बनाने की सनक में ट्रंप जिस राह पर चल पड़े हैं, उससे अमेरिका ग्रेट बनने वाला नहीं है, यह बात अब धीरे-धीरे अमेरिकी जनता को भी समझ आने लगी है । डोनाल्ड ट्रंप का अमेरिका में विरोध लगातार बढ़ता जा रहा है । वहां के पत्रकार, अर्थशास्त्री और कूटनीतिज्ञ ट्रंप की नीतियों के खिलाफ बोलने लगे हैं । भारत के प्रति एक सहानुभूति अमेरिका में भी पैदा होने लगी है क्योंकि पिछले कई सालों में भारत अमेरिका का मजबूत रणनीतिक साझेदार बन चुका है । देखा जाए तो अमेरिका भारत के खिलाफ नहीं हुआ है बल्कि अमेरिकी नेतृत्व भारत के खिलाफ हो गया है । मूल रूप में अमेरिका भारत का विरोधी नहीं है बल्कि वर्तमान सत्ता विरोधी है । यहीं पर अमेरिका और चीन में फर्क दिखाई देने लगता है कि चीन मूल रुप में भारत विरोधी है लेकिन वर्तमान सत्ता भारत के पक्ष में जाती दिख रही है । ऐसा नहीं है कि चीन की वर्तमान सत्ता को भारत से प्रेम हो गया है बल्कि उसे अमेरिका ने ऐसा करने का मौका दे दिया है ।

ढाई महीने पहले ऑपरेशन सिंदूर के दौरान चीन ने जैसी मदद पाकिस्तान को दी थी उससे साबित हो गया है कि चीन भारत का दोस्त नहीं है । सवाल उठता है कि फिर हमारी सरकार क्यों चीन के साथ नए रिश्ते बनाने की ओर चल पड़ी है जबकि पाकिस्तान के साथ तो हम बात तक करने को तैयार नहीं हैं । वास्तव में इसके लिए वो हालात जिम्मेदार हैं जिन्हें डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों ने पैदा कर दिया है । ऐसा नहीं है कि हम चीन के साथ दोस्ती करने जा रहे हैं बल्कि हम चीन के साथ साझेदारी करने की ओर बढ़ रहे हैं ताकि वर्तमान हालातों का मुकाबला किया जा सके । देखा जाए तो अमेरिका भी हमारा दोस्त नहीं है बल्कि वो भी हमारा एक साझेदार है । वैसे भी ग्लोबल राजनीति में कोई किसी का दोस्त नहीं होता, सभी साझेदार होते हैं । कई बार कुछ देशों के हित बहुत ज्यादा एक दूसरे से जुड़ जाते हैं और उनके बीच कई बातों को लेकर सामंजस्य बन जाता है जिसके कारण वो देश दोस्त की श्रेणी में पहुंच जाते हैं । वर्तमान समय में इजराइल, जापान और रूस को भारत इस श्रेणी में रख सकता है लेकिन अमेरिका इस श्रेणी में कभी नहीं रहा और चीन कभी भी इस श्रेणी में शामिल नहीं हो सकता । अमेरिका के हित भारत के हितों से इतना नहीं टकराते जितना चीन के टकराते हैं । भारत यह भी जानता है कि अमेरिका के साथ दोबारा उसके रिश्ते सामान्य हो जाने वाले हैं लेकिन वर्तमान हालातों से निकलने के लिए उसे दूसरे देशों में संभावनाएं तलाशनी होंगी । जहां तक चीन की बात है तो इस समय उसका सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी अमेरिका है और भारत का साथ उसे अमेरिका से निपटने में मदद कर सकता है । चीन पिछले कई सालों से रूस के माध्यम से भारत से रिश्ते बेहतर करने की कोशिश कर रहा है ।

अगर सच कहा जाए तो रूस इसमें ज्यादा दिलचस्पी ले रहा है कि चीन और भारत करीब आ जाएं । रुस भारत और चीन के साथ मिलकर एक ऐसा गठजोड़ बनाना चाहता है जिससे पश्चिमी जगत का मुकाबला किया जा सके । उसके लिए भारत-चीन के रिश्ते बड़ी समस्या हैं लेकिन डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों ने रूस को मौका दे दिया है कि वो इस गठजोड़ को मजबूती से तैयार कर सके । तीनों देशों में बढ़ती प्रगाढ़ता को अमेरिका देख रहा है और वो इससे परेशान है । अमेरिका कभी नहीं चाहता कि भारत रुस-चीन के साथ इस तरीके से जुड़ जाए लेकिन अपने अहंकार में वो इसे रोक भी नहीं पा रहा है । वास्तव में भारत पर टैरिफ लगाने की वजह भी यही है कि अमेरिका चाहता है कि भारत स्पष्ट रुप से अमेरिका के साथ खड़ा हो जाए । डोनाल्ड ट्रंप चाहते हैं कि भारत अब रूस-चीन और अमेरिका के बीच संतुलन बनाने की जगह एक पक्ष में खड़ा हो जाये । 1971 में ऐसी स्थिति आ गई थी कि इंदिरा जी को मजबूरी में एक पक्ष को चुनना पड़ा और इसका फायदा भी भारत को मिला था ।

 आज ऐसी कोई मजबूरी नहीं है कि भारत को एक पक्ष चुनना पड़े । वास्तव में डोनाल्ड ट्रंप की राजनीतिक मूर्खता है कि भारत को ऐसे कदम उठाने पड़ रहे हैं जिनके बारे में अभी तक सोचा नहीं जा रहा था । डोनाल्ड ट्रंप बार-बार घोषणा कर रहे हैं कि उन्होंने भारत और पाकिस्तान पर दबाव डालकर युद्ध-विराम करवाया था । वो समझ नहीं पा रहे हैं कि भारतीय प्रधानमंत्री के लिए यह स्वीकार करना कितना मुश्किल है कि उसने अमेरिका के दबाव में आकर अपनी सेना को युद्ध रोकने का आदेश दे दिया । वो चाहते हैं कि मोदी बड़ी राजनीतिक कीमत देकर युद्ध-विराम के लिए उनको श्रेय दे दें । दूसरी तरफ ऑपरेशन सिंदूर के बाद उन्होंने भारत-पाकिस्तान को एक तराजू में तोलना शुरू कर दिया है जिसे मोदी कभी स्वीकार नहीं कर सकते । वो भारत जैसी शक्ति को पाकिस्तान के बराबर दिखाने की कोशिश कर रहे हैं इसलिए उन्होंने पाकिस्तानी सेना प्रमुख को लंच पर आमंत्रित किया और दूसरी तरफ मोदी जी को भी निमंत्रण दे दिया । मोदी जी उनकी इस चाल को समझ गए इसलिए उन्होंने उनके न्यौते को ठुकरा दिया । इससे डोनाल्ड ट्रंप चिढ़ गए हैं लेकिन वो हालातों को समझ नहीं पा रहे हैं । आखिरी गलती डोनाल्ड ट्रंप की टीम ने यह कर दी कि उसने भारत की डेयरी सहकारी संरचना और कृषि की आर्थिकी को समझे बिना भारत को ट्रेड डील करने के लिए मजबूर करने की कोशिश की । अमेरिका भारत के डेयरी और कृषि क्षेत्र में प्रवेश की मांग कर रहा है, जिसे भारत का कोई भी प्रधानमंत्री स्वीकार नहीं कर सकता ।

 यही कारण है कि मोदी जी ने लाल किले से अपने संबोधन में घोषणा कर दी कि वो किसी भी ऐसी नीति के खिलाफ दीवार की तरह खड़े हैं जो भारतीय किसानों, मछुआरों और पशुपालकों को नुकसान पहुंचाती है । यह सच है कि हमारी अर्थव्यवस्था में प्रगति की अपार संभावनाएं हैं लेकिन यह भविष्य की बात है । अमेरिकी टैरिफ के कारण वर्तमान में बड़ी चुनौतियां खड़ी हो गई हैं । अमेरिका को होने वाले निर्यात की कमी जल्दी पूरी करना संभव नहीं है लेकिन सरकार ने अपनी कोशिश शुरू कर दी है । देखा जाए तो यह अच्छा हुआ है क्योंकि किसी देश पर ज्यादा आश्रित होने की क्या कीमत चुकानी पड़ती है, यह हमें आज पता चल रहा है । टैरिफ के कारण भारत में लाखों नौकरियों पर खतरा पैदा हो गया है क्योंकि अमेरिका को होने वाले निर्यात में ज्यादा हिस्सा श्रम आधारित वस्तुओं का है । भारत का चीन, ब्राजील, रूस, दक्षिण अफ्रीका के प्रति नया रुख नए हालातों के कारण पैदा हुआ है । चीन जाने से पहले मोदी जापान जा रहे हैं ताकि उससे भी इस मामले में मदद ली जा सके । भारत अमेरिकी निर्यात को दूसरे देशों में खपाने की कोशिश में लग चुका है ताकि इस संकट से जल्दी छुटकारा मिल जाए । देखा जाए तो चीन अमेरिका का जवाब नहीं है इसलिए भारत अमेरिका का जवाब कई देशों में ढूंढ रहा है । चीन एक बड़ा देश है इसलिए चीन से इस मामले में भारी मदद मिल सकती है और वो मदद के लिए तत्पर भी दिखाई दे रहा है । भारत के चीन से बढ़ते रिश्ते चीन विरोधियों को पच नहीं रहे हैं इसलिए चीन के संभावित धोखे से बार-बार चेताया जा रहा है । कई लोग तो भारत को बार-बार 1962 की याद दिला रहे हैं कि चीन फिर भारत को धोखा दे सकता है ।

 उन्हें यह बात समझ नहीं आती है कि आज का भारत 1962 का भारत नहीं है । चीन को यह समझ आ गया है कि भारत से संघर्ष में उसे फायदा नहीं है और उसका लक्ष्य भी भारत नहीं है । चीन की चुनौती अमेरिका है । चीन का मानना है कि अमेरिका भारत का इस्तेमाल उसको कमजोर करने के लिए कर रहा था इसलिए जो मौका उसे डोनाल्ड ट्रंप के कारण मिल गया है, वो उसे हाथ से जाने नहीं देना चाहता । भारत को भी इस समय एक मजबूत साझेदार की जरूरत है ताकि वर्तमान चुनौतियों से मुकाबला किया जा सके । भारत जानता है कि अमेरिका का जवाब चीन नहीं है लेकिन वर्तमान हालात में चीन के साथ जाना ही सही रणनीति है ।