नीट युजी की तैयारी के लिए एक वर्ष का अंतराल लेने के फायदे और नुकसान के बारे में जानें

Nov 25, 2024 - 08:56
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नीट युजी की तैयारी के लिए एक वर्ष का अंतराल लेने के फायदे और नुकसान के बारे में जानें
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नीट युजी की तैयारी के लिए एक वर्ष का अंतराल लेने के फायदे और नुकसान के बारे में जानें।

विजय गर्ग

राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने वाले कई छात्रों के लिए, नीट एक अंतराल वर्ष लेना एक ऐसा निर्णय है जो बहस के उचित हिस्से के साथ आता है। जबकि कुछ का मानना ​​है कि एक अंतराल वर्ष सफलता के लिए गेम-चेंजर हो सकता है, दूसरों का तर्क है कि यह हमेशा सबसे अच्छा विकल्प नहीं हो सकता है। आइए नीट की तैयारी के लिए एक वर्ष का अंतराल लेने के फायदे और नुकसान के बारे में जानें। भारत हमेशा सीधा-सरल नहीं होता. कई छात्रों के लिए, सफेद कोट पहनने का सपना अक्सर राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (एनईईटी) में पहले प्रयास से आगे तक जाता है। हर साल, हजारों महत्वाकांक्षी डॉक्टर एक महत्वपूर्ण चौराहे पर खड़े होते हैं - क्या उन्हें एक वर्ष की छुट्टी लेनी चाहिए और तैयारी के लिए अधिक समय देना चाहिए, या आगे बढ़ना चाहिए और अन्य कैरियर पथ तलाशना चाहिए? यह निर्णय बहुत आसान नहीं है. यह वह है जो कई कारकों-शैक्षणिक प्रदर्शन, मानसिक लचीलापन, वित्तीय बाधाओं और व्यक्तिगत लक्ष्यों पर सावधानीपूर्वक विचार करने की मांग करता है। एक ड्रॉप ईयर कुछ लोगों के लिए परिवर्तनकारी हो सकता है, लेकिन जरूरी नहीं कि यह हर किसी के लिए सही विकल्प हो। तो, छात्र यह कैसे तय करें कि तैयारी का यह अतिरिक्त वर्ष उनके लिए सही रास्ता है या नहीं? आइए दोनों पक्षों का अन्वेषण करें।

ड्रॉप वर्ष का उदय: एक रणनीतिक कदम या अनावश्यक देरी? हाल के वर्षों में, कई नीट उम्मीदवारों के लिए ड्रॉप ईयर लेना एक आम रणनीति बन गई है। एक ड्रॉप ईयर छात्रों को स्कूल परीक्षाओं, होमवर्क और नियमित कक्षाओं के दबाव के बिना निर्बाध समय की विलासिता प्रदान करता है। कई लोगों के लिए, यह फिर से संगठित होने, गलतियों पर विचार करने और अगले प्रयास में परीक्षा में सफल होने के लिए अपनी तैयारी को बेहतर बनाने का अवसर है। नियमित शिक्षा से ध्यान भटकाए बिना, छात्र एनईईटी पाठ्यक्रम में महारत हासिल करने के लिए अपनी सारी ऊर्जा समर्पित कर सकते हैं। यह केंद्रित समय उन्हें इसकी अनुमति देता है: 1. मौलिक अवधारणाओं को गहराई से दोहराएँ। 2. उन कमजोर क्षेत्रों को पहचानें और उन पर काम करें जिनकी अनदेखी हो सकती है। 3. समस्या-समाधान तकनीक और समय प्रबंधन जैसे परीक्षा-विशिष्ट कौशल विकसित करें। 4. छह घंटे की लंबी परीक्षा को संभालने के लिए मानसिक सहनशक्ति बनाएं। छात्रों को पिछले वर्षों के प्रश्नपत्रों के साथ अभ्यास करने और मॉक टेस्ट का प्रयास करने के लिए अधिक समय मिलता है - स्कूल और एनईईटी की एक साथ तैयारी के दौरान अक्सर आवश्यक कदम उठाए जाते हैं। यह संरचित दृष्टिकोण उन्हें परीक्षा पैटर्न के साथ बेहतर तालमेल बनाए रखने में मदद करता है, यह सुनिश्चित करता है कि वे परीक्षा में आने वाली किसी भी चुनौती के लिए अच्छी तरह से तैयार हैं। चुनौती: क्या एक गिरावट वाला साल दबाव के लायक है? जबकि गिरावट वाले वर्ष के फायदे स्पष्ट हैं, यह महत्वपूर्ण चुनौतियों के साथ भी आता है-विशेषकर मनोवैज्ञानिक मोर्चे पर। पूरे वर्ष के लिए शैक्षणिक प्रगति को रोकने का निर्णय भारी लग सकता है।

छात्र अक्सर असफलता के डर और यह सुनिश्चित करने के दबाव से दबे रहते हैं कि तैयारी का अतिरिक्त वर्ष सार्थक हो। साथियों को कॉलेज शुरू करते हुए या अन्य करियर बनाते हुए आगे बढ़ते हुए देखने से आत्म-संदेह और निराशा पैदा होती है। पूरे वर्ष भर प्रेरित रहने के लिए मानसिक अनुशासन और भावनात्मक लचीलेपन की आवश्यकता होती है। कई छात्र गति बनाए रखने के लिए संघर्ष करते हैं, खासकर जब उन्हें अपने प्रयासों को मान्य करने के लिए तत्काल परिणाम नहीं मिलने के कारण बार-बार अध्ययन चक्र का सामना करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त, पारिवारिक अपेक्षाएँ और वित्तीय विचार इस निर्णय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जबकि कुछ परिवार तैयारी के एक और वर्ष का समर्थन करने के लिए सुसज्जित हैं, दूसरों को वित्तीय बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है। सामाजिक दबाव भी छात्रों पर भारी पड़ सकता है, जिससे वे सवाल कर सकते हैं कि क्या ड्रॉप ईयर लेना सही विकल्प है। कैसे तय करें: क्या ड्रॉप ईयर सही है?पसंद? एक सूचित निर्णय लेने की कुंजी प्रत्येक छात्र की स्थिति के व्यक्तिगत मूल्यांकन में निहित है। विचार करने के लिए यहां कुछ कारक दिए गए हैं: 1. प्रदर्शन विश्लेषण: आप अपने पिछले प्रयास में नीट कटऑफ के कितने करीब थे? यदि मार्जिन छोटा था, तो अंतर को पाटने के लिए एक ड्रॉप वर्ष सार्थक हो सकता है। 2. सुधार के क्षेत्रों की पहचान करना: क्या आप जानते हैं कि आपसे कहां गलती हुई? यदि कुछ विशिष्ट विषयों या अवधारणाओं पर अधिक काम करने की आवश्यकता है, तो अतिरिक्त समय उन्हें संबोधित करने में मदद कर सकता है।

 3. स्व-प्रेरणा और अनुशासन: क्या आप अपने दिन की संरचना के लिए स्कूल के बिना पूरे एक वर्ष तक केंद्रित और स्व-संचालित रह सकते हैं? ड्रॉप ईयर के लिए सख्त अनुशासन और प्रभावी समय प्रबंधन की आवश्यकता होती है। 4. पारिवारिक सहायता और वित्तीय व्यवहार्यता: क्या आपके परिवार के पास तैयारी के एक अतिरिक्त वर्ष का समर्थन करने के लिए संसाधन हैं? ड्रॉप ईयर के लिए प्रतिबद्ध होने से पहले व्यावहारिकताओं पर खुलकर चर्चा करना आवश्यक है। 5. मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण: एक गिरावट वाला वर्ष मानसिक रूप से मांग वाला होता है। क्या आप तैयारी प्रक्रिया को दोहराने का दबाव झेलने के लिए तैयार हैं? थकान से बचने के लिए आपको अध्ययन और आत्म-देखभाल के बीच संतुलन बनाना होगा। 6. बैकअप योजनाएँ: यदि चीजें योजना के अनुसार नहीं हुईं तो क्या होगा? एनईईटी की तैयारी के साथ-साथ अन्य करियर विकल्पों की खोज के रूप में एक आकस्मिक योजना बनाने से चिंता कम हो सकती है और सुरक्षा की भावना मिल सकती है। किताबों से परे की यात्रा: गिरावट के वर्ष के दौरान समग्र कल्याण का पोषण एक ड्रॉप ईयर लेना शैक्षणिक तैयारी की एक विस्तारित अवधि से कहीं अधिक का प्रतिनिधित्व करता है, यह एक व्यापक यात्रा है जो समग्र कल्याण पर ध्यान देने की मांग करती है। जबकि पाठ्यपुस्तकें और अभ्यास परीक्षण तैयारी का मूल हैं, इस महत्वपूर्ण वर्ष के दौरान सफलता मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के बीच एक नाजुक संतुलन बनाए रखने पर निर्भर करती है। शारीरिक गतिविधि इस संतुलित दृष्टिकोण की आधारशिला बनकर उभरती है। नियमित व्यायाम तनाव निवारक और संज्ञानात्मक वृद्धि दोनों के रूप में कार्य करता है, जिससे छात्रों को उनकी यात्रा की तैयारी के दौरान मानसिक स्पष्टता और भावनात्मक स्थिरता बनाए रखने में मदद मिलती है।

 केंद्रित अध्ययन की कठोर मांगों को बनाए रखने में पोषण की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। पर्याप्त जलयोजन के साथ नियमित, पौष्टिक भोजन अध्ययन दक्षता में उल्लेखनीय वृद्धि कर सकता है और पूरे दिन लगातार ऊर्जा स्तर बनाए रख सकता है। जबकि अकादमिक फोकस सर्वोपरि है, मनोरंजक गतिविधियों में संयम की कला दीर्घकालिक स्थिरता के लिए आवश्यक साबित होती है। अवकाश गतिविधियों से पूर्ण परहेज अक्सर थकावट और प्रेरणा में कमी का कारण बनता है। इसके बजाय, शौक, मनोरंजन या सामाजिक मेलजोल के लिए नियोजित ब्रेक दिमाग को तरोताजा कर सकते हैं और अध्ययन की थकान को रोक सकते हैं। राहत के ये क्षण, जब अनुशासन के साथ संपर्क किए जाते हैं, तो पुरस्कार के रूप में काम करते हैं जो प्रेरणा के स्तर को बनाए रखने में मदद करते हैं। शायद सबसे महत्वपूर्ण एक मजबूत समर्थन प्रणाली की उपस्थिति है। एक गिरावट वाले वर्ष की भावनात्मक चुनौतियाँ महत्वपूर्ण हो सकती हैं, जिससे परिवार, दोस्तों और गुरुओं की भूमिका अमूल्य हो जाती है। ये समर्थन नेटवर्क संदेह के क्षणों के दौरान भावनात्मक एंकरिंग, व्यावहारिक मार्गदर्शन और प्रेरणा प्रदान करते हैं। उन सलाहकारों के साथ नियमित बातचीत जो प्रगति का आकलन कर सकते हैं, रचनात्मक प्रतिक्रिया प्रदान कर सकते हैं और अध्ययन रणनीतियों को समायोजित कर सकते हैं, यह सुनिश्चित करते हैं कि छात्र अपने लक्ष्यों की ओर ट्रैक पर बने रहें। अंतिम पंक्ति: गिराना है या नहीं गिराना है? अंततः, ड्रॉप ईयर लेने का निर्णय व्यक्तिगत है।

यह न तो सफलता का कोई गारंटीशुदा फॉर्मूला है और न ही एनईईटी क्रैक करने की दिशा में कोई अनिवार्य कदम है। कुछ छात्र एक अतिरिक्त वर्ष की तैयारी के साथ सफल होते हैं, जबकि अन्य पहले प्रयास में ही अपना लक्ष्य हासिल कर लेते हैं। केआपको एक सोच-समझकर चुनाव करना है जो आपकी ताकत, चुनौतियों और परिस्थितियों को दर्शाता है। एक ड्रॉप ईयर आपके सपने को साकार करने का दूसरा मौका दे सकता है, लेकिन यह एकमात्र तरीका नहीं है। एनईईटी में सफलता के लिए ज्ञान, रणनीति, समय प्रबंधन और मानसिक दृढ़ता के संयोजन की आवश्यकता होती है - इन सभी को एक ड्रॉप वर्ष के साथ या उसके बिना विकसित किया जा सकता है। अंत में, सफलता के लिए कोई "एक आकार-सभी के लिए उपयुक्त" दृष्टिकोण नहीं है। चाहे आप ड्रॉप ईयर लेना चाहें या नहीं, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित रखें, अपनी यात्रा पर भरोसा रखें और याद रखें कि जो रास्ता आपके लिए सबसे अच्छा है उस पर चलने में कोई शर्म नहीं है। ।

■ अपनी अपनी दुनिया -

हर इंसान अपनी बनाई दुनिया में जीता है। उसकी उस दुनिया को केवल वही देख सुन सकता है, उसमें जी सकता है। किसी भी दूसरे व्यक्ति को उसकी उस दुनिया में जाने की अनुमति तब तक नहीं होती, जब तक वह इंसान खुद न चाहे । कई बार ऐसा भी होता है कि चाहते हुए भी वह इंसान अपनी उस दुनिया के विषय में किसी से कुछ कह नहीं पाता या सामने वाले व्यक्ति को उस दुनिया के विषय में समझा नहीं पाता और दुनिया वाले उसे पागल समझने लगते हैं। जबकि लोग भी यह बात जानते हैं कि इतनी बड़ी इस दुनिया में उनकी भी अपनी एक छोटी-सी दुनिया है, जिसमें वे हर रोज जीते हैं। इसके बावजूद वे सामने वाले के मनोभावों को समझने में असमर्थ ही रहते हैं। शायद वे खुद भी यह बात समझ नहीं पाते कि वे खुद जिसमें जीना पसंद कर रहे हैं, वह उनकी खुद की एक अलग दुनिया है । 'पर्पल दुनिया' उसी दुनिया को कहते हैं। ऐसा नहीं है कि उस दुनिया में हर एक चीज का रंग बैंगनी है। यहां इस रंग से तात्पर्य ' हीलिंग', यानी उपचार से है, सुकून या शांति से है। यानी एक ऐसी दुनिया, जिसमें जाकर किसी के मन और विचारों को शांति मिले। जहां जाकर कुछ भी सोचने-विचारने पर किसी तरह का कोई बंधन न हो, लोग क्या कहेंगे, क्या सोचेंगे, जैसे कोई बंधन न हों। जहां व्यक्ति पूर्ण रूप से अपने विचारों के साथ जिए । जो बाहरी दुनिया से मिले घावों का उपचार करने, उन्हें भरने में हमारा सहयोग करे, हमारे दिमाग को शांति प्रदान करे, कुछ देर या पल के लिए ही सही, जीवन के तमाम झंझटों और परेशानियों से हमें मुक्त कर दे, जहां किसी तरह का कोई दबाव न हो, ऐसी सबकी एक अलग दुनिया को ही 'पर्पल दुनिया' कहते हैं । मसलन, शराब पीने वाले लोगों को अक्सर ऐसा लगता है कि वह नशा करके अपने तमाम दुख तकलीफों से मुक्त हो जाते हैं, वैसे ही किसी के लिए किसी भी प्रकार का नशा या आसक्ति उसे उसकी एक अलग दुनिया में ले जाता है। वीडियो गेम की दुनिया आजकल बच्चों से लेकर युवाओं तक, सभी की आसक्ति बनी हुई है और लोग अपने होश खो बैठे हैं। इसमें इतना खो चुके हैं कि सच्चाई और भ्रम अंतर भूल गए ।

आज उनकी यह आसक्ति उनके लिए एक मनोरोग बन चुकी है। सिर्फ एक यही दुनिया ऐसी नहीं है, बल्कि और भी कई सारे क्षेत्र ऐसे हैं, जिनमें उलझकर इंसान मनोरोग या इस तरह की स्थिति का शिकार बनता चला जा रहा है। कई बार कोई पुराना हादसा या दुर्घटना भी इंसान के मन में ऐसी घर कर जाती है कि वह खुद को ही उस घटना या दुर्घटना का दोषी मानने या समझने लगता है और अपराधबोध से इस गहराई तक डूब जाता है कि एक अलग ही दुनिया में जीने लगता है । उस दुनिया में बहुत से लोग अपने आप से घंटों बातें करते है, तो कुछ लोग डरने लगते हैं । कुछ को वह सब दिखाई देने लगता है जो वास्तव में होता ही नहीं । ऐसे लोग साधारण दुनिया के विपरीत सोचते है। उन्हें असल दुनिया बुरी लगती है। वे अपनी 'पर्पल दुनिया' में ही रहना चाहते हैं। यों तो हम इंसान अपने दिमाग को अपने वश में करके जीना जानते हैं, लेकिन ये वे इंसान होते हैं, जिन्हें उनका दिमाग अपने वश में कर लेता है। साधारण तौर पर अगर देखा जाए तो हम सामान्य इंसानों की भी तो एक अपनी दुनिया होती है, जिसमें हम जीना चाहते हैं। जो जीवन में किसी कारणवश कर न सके या बन नहीं सके, उसकी कल्पनाओं में खो जाते हैं। जिन बातों या सपनों में जाकर हम वह बन जाते हैं जो हम बन नहीं पाए और शायद आज भी कहीं न कहीं सामाजिक दबाव, या यों कहें कि पारिवारिक बंधनों के चलते, चाहते हुए भी बन नहीं सकते और तब कहीं न कहीं मन के किसी कोने में हम भी एक अपनी दुनिया बना ही लेते हैं । देखा जाए तो इस विषय के पीछे एक बड़ा और मुख्य कारण है अकेलापन। आज की इस भौतिक दुनिया में जहां बच्चों से लेकर वृद्धजनों तक हर कोई अकेला है, वहां शांतिपूर्वक जीने के लिए या सिर्फ जीने के लिए हर किसी को कोई चाहिए अपने मन की कहने या अपने अनुसार जीने के लिए।

 दरअसल, आज की इस भौतिक दुनिया में सब इतने अकेले और परेशान हैं कि कोई किसी को स्वीकार नहीं करना चाहता । शायद यही वजह है कि हर कोई मुखौटा लगा कर घूमता है और फिर भी उसे जब यह भौतिक दुनिया नहीं स्वीकार करती तो वह अपनी अलग दुनिया बना लेता है। एक ऐसी दुनिया, जो पूर्णरूप से भावनात्मक या मानसिक होती है, जहां वह यह कल्पना करने लगता है कि वह अपनी बनाई हुई उस दुनिया का राजा है। और उसकी उस दुनिया में सभी लोग उस जैसे ही हैं, जहां कोई किसी के प्रति किसी प्रकार की धारणा नहीं बनाता। धीरे-धीरे यह दुनिया इतना विस्तार पकड़ लेती है। कि एक अच्छा खासा व्यक्ति मनोरोग का शिकार हो जाता है और किसी को भी पता ही नहीं चलता । कई बार ऐसा लगता है कि हमें पीछे लौटने की जरूरत है, लेकिन एक बार जो समय चला गया, वह लौटकर नहीं आता । हम चाहें भी तो पुराने मोहल्ला संस्कृति में नहीं लौट सकते, क्योंकि ताली एक हाथ से नहीं बजाई जा सकती, लेकिन हम अपने घरों में अपनों को इस अकेलेपन 'बचा जरूर सकते हैं। उनसे बात करके उनको सुनकर, उन्हें समझने की कोशिश कर- के! बोलना-बतियाना ही अकेलेपन और इससे उपजी मुश्किलों की समस्या का समाधान है। सिर्फ बोलना ही नहीं है, सुनना और समझना भी है, ताकि जब हमारी बारी आए तब हमें भी कोई सुनने-समझने वाला हो ।

■ ऊबने से उपजी मुश्किल

कुछ समय पहले एक खबर आई थी कि एक तकनीकी संस्थान में काम करने वाला नौजवान कभी-कभार सड़क पर आटो चलाता है। उसके अनुसार, ऐसा वह अपनी बेचैनी और ऊब को कम करने के लिए करता है और खुशी-खुशी आटो चलाता है, सवारी को भी गंतव्य तक पहुंचाता है। ऊब होने और उससे लड़ने का यह मनोभाव सचमुच अलग और विचारणीय है। आखिर मन को इतनी ऊब किसलिए होने लगती है ? यह टालने या नजरअंदाज कर देने की बात नहीं है। मनोचिकित्सकों का कहना है कि अचानक ही हर चीज से मन का उचट - सा जाना इन दिनों एक सामान्य बात हो रही है। ऐसा लगभग हर किसी के साथ होता है । इन दिनों कुछ लोग अपनी दिनचर्या से इतने परेशान हो रहे हैं कि उनको हर बात से अरुचि - सी होने लगी । जब भी कोई चर्चा की जाए तो अधिकांश का जवाब यही होता है कि सुबह चाय और काफी गटक ली, नहाया, नाश्ता हो गया, वेब सीरीज देख ली, फोन लेकर सारे सोशल मीडिया के मंच पर जाकर दुनियाभर की चीजें देख लीं, अब मन अजीब हो रहा है। इसका कारण साफ लगता है। हमको एक ही बटन दबाने से सौ चैनल मिल रहे हैं । कुछ खरीदना है। तो एक पल में सौ तरह की दुकान, सौ तरह का सामान हाजिर। इससे होता यह है कि यह मन बावला होने और भटकने लगता ।

इसीलिए मन को झुंझलाहट होती है। जरूरत से अधिक मनोरंजन और सुख-सुविधा भी मन को उचाट कर देती है। सुकरात ने कहा था कि अि हमेशा दुख देती है । कोई चीज जरूरत से अधिक मिल जाती है तो वह खुशी नहीं, बेचैनी देती है। यों मन का उचाट हो जाना उनके साथ भी अधिक होता है, जो लोग जीवन में कुछ करने की ख्वाहिश रखते हैं, मगर वहां तक नहीं पहुंच पाते, जहां पहुंचना है । तब उनको भी ऊब तथा बेचैनी होने लगती है। अमेरिका के एक प्रसिद्ध लेखक मार्क ट्वेन ने भी कहा था कि खुश मानव के दो दुश्मन उदासी और बोरियत होते हैं। 1 मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड के शिष्य मनोचिकित्सक ओटो फेनीशेल ने उनके साथ मिलकर इस ऊब और बोरियत पर अनगिनत प्रयोग किए थे। उनका मानना था कि सामान्य बोरियत तब पैदा होती है जब हम वह नहीं कर सकते जो हम करना चाहते हैं या जब हम कुछ ऐसा करते हैं, जो हम नहीं करना चाहते हैं। दोनों ही स्थितियों में, कुछ अपेक्षित या वांछित नहीं होता है। यहां हमें खुद पर गौर करने की आवश्यकता होती है। जरा-सा खुद पर विचार हमको बोरियत की जड़ तक ले आता है । तब समाधान भी मिलता है । कई बार जो ऊब जैसा लगता है, वह वास्तव में उस कार्य से बचने का बहाना होता है, जिसे हम करना ही नहीं चाहते । हालांकि यह भी सच है कि बोरियत से उसी प्रकार की मानसिक थकान होती है जैसे निरंतर एकाग्रता वाले कामों में होती है। कभी-कभी ऊब महसूस होना स्वाभाविक है, लेकिन जब यह स्थायी मनोदशा बन जाए तो चिंताजनक है। ऊबना नकारात्मक विचारों की जड़ है। इससे व्यवहार में चिड़चिड़ापन आने लगता है। कार्यक्षमता और रिश्तों पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

इसकी वजह से व्यक्ति अवसाद में भी जा सकता है। लगातार एक जैसा काम करने पर एक स्थिति यह आती है कि हम अपना काम कर ही नहीं पाते और इसके कारण अन्य कामों में मन नहीं लगता । तब भी हमको ऊब होने लगती है । मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में भी यह पाया गया है कि ऊब महसूस करने की मानसिक स्थिति का जन्म बहुत छोटी उम्र से हो जाता है और अप्रिय लगने के बावजूद यह सीखना आवश्यक है कि रचनात्मक और उत्साह से कैसे रहें । ऊबने या बोरियत से कुछ मनोभाव सीधे-सीधे जुड़े हैं । मिसाल के तौर पर झुंझलाहट, बिखराव, अकेलापन, क्रोध, दुख और चिंता आदि । लगातार ऊबते रहने वाले व्यक्ति ज्यादा खाते हैं । मादक पदार्थों के सेवन सहित धूम्रपान और अपराध जैसे दुर्गुणों के बढ़ने की आशंका भी रहती है। अगर कोई ऊब रहा है तो एक बार एकांत में बैठकर उसे खुद को परिभाषित करना चाहिए। यह सोचना चाहिए कि उसे सबसे अच्छा क्या लगता है। यानी खुद को अच्छे लगने वाले कामों की पहचान करने की जरूरत है । फुर्सत के पलों में मोबाइल या स्मार्टफोन में गुम होने के बजाय कोई अच्छी किताब पढ़ी और अपने दोस्तों से बातचीत की जा सकती है। फूलों के पौधे लगाए जा सकते हैं और गमलों को पेंट किया जा सकता है। घर की व्यवस्था और सजावट को बदलकर देखना चाहिए । हर वह काम जो सुखद तब्दीली दिखाए, ऊब से बाहर निकलने में मदद करेगा। फूलों के पौधे भी इसीलिए सुझाए जाते हैं कि जब पौधे पर कलियां आती हैं, फूल खिलते हैं, तो मन प्रसन्न होता है। ऊबाऊ जीवनशैली को बदल लेना चाहिए। महापुरुषों की जीवन गाथा को पढ़ने से उम्मीद मिलती है। कुदरत की सेवा करने से लेकर सार्वजनिक जगह पर जाकर गपशप करना भी राहत देती है । राह चलते किसी अनजान से बात होने पर भी बहुत खुशी मिलती है। कोई नई आदत पाली जा सकती है । नाचना, गाना, चित्रकारी, बागवानी आदि । बोरियत लगभग सभी को महसूस होती है । इसलिए इसे महसूस करते हुए डरने की जरूरत नहीं, मगर इसे नजरअंदाज भी नहीं करना चाहिए । इसे ठीक से देख कर इसकी आग पर अपने शौक और हुनर का शीतल जल छिड़क देना चाहिए। ऊब दुम दबाकर भाग जाएगी।

■ ज्ञान परंपरा का जीवन

वर्तमान विश्व में व्यक्ति और समाज में जिस स्तर पर उतार-चढ़ाव देखने में आ रहा है, उसमें शांति की जरूरत ज्यादा शिद्दत से महसूस की जाने लगी है। इस शांति की खोज में कई बार व्यक्ति थोड़ा निराश हो जाता है, भावनाओं के स्तर पर उथल-पुथल का शिकार हो जाता है। इसके बाद शुरू होती है अमूर्तन में शांति की खोज और उसमें नाहक भटकना । जबकि भारतीय ज्ञान परंपरा व्यक्ति के भीतर की शांति और मन की भावनाओं को नियंत्रण में रख सकती है। दरअसल, भारतीय ज्ञान परंपरा दुनिया भर में समृद्ध और सबसे प्राचीन परंपराओं में से मानी जाती है। मगर आज यह कोई मुख्य विषय नहीं है । सवाल है कि फिर भारतीय ज्ञान परंपरा से परहेज किसको है। ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय ज्ञान और संस्कृति को कमजोर करने का जो बारीक प्रयास हुआ, उसे आजादी के बाद वापस समृद्ध करने की कोई ठोस पहल नहीं हो सकी है। हालांकि इसका गुणगान करने में कोई कमी नहीं की जाती है। सवाल है कि हमारे देश के विश्वविद्यालयों में भारतीय ज्ञान परंपरा को पढ़ाने में इतनी हिचकिचाहट क्यों दिखती है। देश के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में भारतीय ज्ञान परंपरा के विभाग नहीं है। उपनिषदों, पुराणों और वेदों जैसे विषयों में इसका विस्तार हमें पढ़ने को मिलता है। हमारे वेद उपनिषद में योग और ध्यान, आयुर्वेद चिकित्सा, दर्शन और न्याय जैसे विषय भारतीय ज्ञान परंपरा के प्रमुख विषय रहे हैं । यह किसी व्यक्तिगत समूह या व्यक्तियों के अधिकार क्षेत्र में नहीं है, बल्कि यह प्राचीन परंपराओं का दर्शन रहा। वहीं हमारे देश में शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति था और आज की शिक्षा उपाधि- पत्र प्राप्ति तक सिमट कर रह गई है ।

भारत सदियों से ज्ञान परंपरा और संस्कृति के लिए अपनी अलग पहचान रखता है। परंपरागत ज्ञान भाषा, दर्शन, ज्ञान की अपरिहार्यता, लोक, मूर्तिकला पर आधारित है । कहने को राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 में प्राचीन ज्ञान परंपरा और आधुनिक शिक्षा का समावेश करते हुए शिक्षा प्रणाली को आगे ले जाने की बात की जा रही है, लेकिन अब तक देश के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में भारतीय ज्ञान परंपरा के विषय को सुचिंतित तरीके से शुरू करने को लेकर पहल नहीं हुई है। हालांकि जिन कुछ विश्वविद्यालयों में यह विषय पहले से संचालित है, उनका उदाहरण हमारे सामने है। विगत तीन सौ वर्षों में इसका लोप हुआ है। भारतीय ज्ञान परंपरा वैदिक और उपनिषद काल के बाद बौद्ध और जैन काल में भी कायम रही । ऋग्वेद में लिखा है- ' आ नो भद्राः क्रतवो यंतु विश्वतः ' यानी सात्विक विचार हर दिशा से आने चाहिए । स्वयं को और अन्य को किसी चीज से वंचित नहीं करना चाहिए। ज्ञान की बातों को ग्रहण करना चाहिए। वेद और वेदवांग्मय भारतीय ज्ञान परंपरा की आत्मा हैं । भारतीय जीवन-दर्शन को जो स्वरूप वेद-उपनिषदों से ही मिला है, वह भारतीय ज्ञान परंपरा के मूल में है । भारतीय ज्ञान परंपरा के मूल वेद विचार को भी महत्त्वपूर्ण बनाता है। वर्तमान युग में वेद अध्ययन और वैदिक परंपरा का उल्लेख प्रत्येक ग्रंथ में देखने और सुनने को मिलता है। भारतीय विश्वविद्यालय में वेदों और वैदिक वांग्मय पर हुए अनुसंधान कार्यों से भारतीय ज्ञान परंपरा की जो उपादेयता बनी है, वह आने वाली पीढ़ी के सम्मुख रखी जानी चाहिए। वैदिक परंपरा का संरक्षण एवं संवर्धन भारतीय ज्ञान परंपरा करती है। आधुनिक ज्ञान के स्रोत भी वेद ही हैं। वैदिक विचारों की सामाजिक उपयोगिता, वैदिक चिंतन और विश्व शांति जैसे सवाल का जवाब भारतीय ज्ञान परंपरा के पठन-पाठन से ही संभव है। भविष्य में जीवन को श्रेष्ठ और सुंदर कैसे बनाया जाए, यह हमारी भारतीय ज्ञान परंपरा में छिपा हुआ है। नई पीढ़ी को भारतीय ज्ञान से परिचित कराने के लिए ठोस पहल होनी चाहिए, ताकि हमारे अतीत में क्या अच्छा रहा है या क्या अच्छा नहीं रहा, इस पर विवेक आधारित विश्लेषणात्मक चिंतन परंपरा मजबूत हो । वेद और उपनिषदों के अध्ययन से आध्यात्मिक और दार्शनिक ज्ञान ने भारत की सांस्कृतिक और सामाजिक संरचनात्मकता को प्रभावित किया है, वहीं अनेक गूढ़ रहस्यों का विवरण भी देखने को मिलता है। योग और ध्यान रोजगार के बड़े साधन के रूप में हमारे सामने आ रहे हैं । भारतीय दर्शन और न्याय जीवन कर्म, धर्म, मोक्ष और सत्य की उच्चतम विचारों की व्याख्या ही है, जो वर्तमान समाज की प्रेरणा का स्रोत है। भारतीय ज्ञान परंपरा को विद्यार्थियों के बीच पहुंचाए जाने से हमारी वर्तमान पीढ़ी के लिए करियर के अवसर भी पैदा होंगे और वर्तमान शिक्षा व्यवस्था को भी बल मिलेगा ।

 विचारणीय सवाल यह है कि पिछले एक दशक में भारतीय ज्ञान परंपरा को महान बताने के बावजूद ठोस रूप से इसके अध्ययन-मनन की बात कौन कर रहा है। इससे संबंधित विषय प्रारंभ होंगे तो हमारे वेद और उपनिषदों का अध्ययन होगा, भारतीय दर्शन और न्याय की पढ़ाई कराई जाएगी, आयुर्वेद और चिकित्सा विज्ञान की बात और ज्यादा आगे बढ़ेगी। ज्ञान के क्षेत्र में विश्व भर में अब तक जो भी उपलब्धियां रही हैं, उनका अध्ययन, विश्लेषण आधारित चिंतन और उन्हें कसौटी पर रखा जाना ज्ञान की परंपरा को और मजबूत ही करेगा। कोई भी समा ज्ञान की परंपराओं का अध्ययन करके ही उसके मूल तत्त्वों के दर्शन पर विचार कर सकता है। उसके बाद वर्तमान और भविष्य के समाज और विश्व के निर्माण के संदर्भ में बेहतर रास्तों की खोज हो सकती है ।

■ तनाव से मुरझाती मानसिक सेहत

मानसिक स्वास्थ्य से अभिप्राय भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक तौर पर स्वस्थ रहने की स्थिति से है। यानी मानसिक स्वास्थ्य के लिए व्यक्ति की मनोदशा सकारात्मक, स्थिर और संतुलित होनी चाहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन मानसिक स्वास्थ्य को मानसिक कल्याण के रूप में परिभाषित करता है, जिसमें व्यक्ति को अपनी क्षमताओं का अनुभव होता है। वे जीवन के सामान्य तनावों का सामना कर सकते हैं। यही नहीं प्रत्येक स्थिति में उचित निर्णय ले सकते हैं और समाज के विकास में सहायक हो सकते हैं। मगर आधुनिक प्रौद्योगिकी और डिजिटल युग के तीव्र विस्तार के बाद से हमारे देश में ही नहीं, बल्कि दुनिया के प्रत्येक समाज में मानसिक स्वास्थ्य को अब चुनौती मिल रही है। आज लगभग हर व्यक्ति जीवन के किसी न किसी पड़ाव पर मानसिक अस्थिरता, तनाव, , कुंठा और निराशा का सामना करता नजर आता है। यह अवश्य है कि इनके कारण अलग-अलग हो सकते हैं। कुछ अध्ययनों में यह सामने आया है कि वर्तमान समय में भारत में मानसिक स्वास्थ्य विकारों में बढ़ोतरी देखी जा रही है। संस्था 'द लैंसेट साइकियाट्री कमीशन' के अनुसार उन्नीस करोड़ सत्तर लाख से अधिक लोग अवसाद, चिंता और मादक द्रव्यों के सेवन जैसी स्थितियों से पीड़ित हैं। इस बात में संदेह नहीं है कि आर्थिक और तकनीकी विकास ने रोजगार और प्रगति के कई नए अवसर पैदा किए हैं, लेकिन इससे लोगों में विशेष रूप से से युवाओं में बाओं में सामाजिक दबाव और व्यक्तिगत अपेक्षाएं भी बढ़ी हैं।

और जब मनुष्य की आकांक्षाएं बढ़ती हैं, तब अक्सर यह देखने में आता कि वे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी करते हैं। इस नवीन संस्कृति ने न केवल भौतिकतावाद और दिखावे को बढ़ावा दिया है, बल्कि प्रकृति तथा मानव अस्तित्व के समक्ष अनेक संकट भी उत्पन्न कर दिए हैं। आज ऐसी अनेक नई प्रकार की व्याधियां उभर र रही हैं, जिनका नाम लोगों ने कभी नहीं सुना था और तो और पहले जो बीमारियां किसी निश्चित आयु में (जैसे प्रौढ़ावस्था अथवा वृद्धावस्था में) हुआ करती थी, वे अब किशोरों और युवाओं में (जैसे रक्तचाप, मधुमेह, हृदय आघात या दृष्टि विकार, स्मृतिलोप और घुटनों का दर्द आदि) भी होने लगी हैं। स्पष्ट है कि आधुनिक जीवन । शैली, महानगरीय चकाचौंध और तीव्र प्रतिस्पर्धा ने युवाओं और किशोरों के जीवन को इतना अधिक तनावपूर्ण बना दिया है कि जब वे उस दबाव को नहीं झेल पाते, तो अपने जीवन को समाप्त करने से भी नहीं चूकते। चिंता का का विषय यह है कि आए दिन इस तरह की खबरें समाचारों सुर्खियां बनती हैं। इस साल के मध्य में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करने वाली 26 वर्षीय युवती ने काम के अत्यधिक दबाव के कारण आत्महत्या कर ली। दो महीने पहले ही चेन्नई स्थित एक अन्य कंपनी में काम करने वाले 38 वर्षीय साफ्टवेयर इंजीनियर ने अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। एक और घटना में मैकिंसे एंड कंपनी के 25 वर्ष के एक युवा कर्मी ने मुंबई के वडाला इलाके में काम के अधिक दबाव के कारण अपने आवासीय परिसर की नौवीं मंजिल से छलांग लगा दी। इन सभी घटनाओं को गंभीरता से लेना होगा। सोचने की बात है कि मनचाहा करिअर और उच्च वेतन पाने के बाद भी यह युवा पीढ़ी खुद को समाप्त करने के लिए क्यों तैयार हो जाती है।

संभवतः इंजीनियरिंग, मेडिकल अथवा प्रबंधन जैसे व्यावसायिक पाठ्यक्रम में छह-सात साल खर्च करने के बाद युवाओं को लगता है कि अच्छी कंपनी में नौकरी पाने के बाद जीवन संवर जाएगा और उन्हें भविष्य में ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ेगा। फिर वे अपना मनपसंद जीवन जी सकेंगे। ऐसा वे अपने बड़ों से सुनते भी रहते हैं कि पढ़ाई में कुछ सालों की मेहनत से उनका भविष्य बेहतर हो जाएगा और एक उच्च स्तरीय जिंदगी जी सकते हैं, लेकिन क्या वास्तव में जिंदगी में ऐसा ही होता है या सपने बिखर जाते हैं? हम सभी जानते हैं कि जिंदगी किसी नियोजित योजना के अनुरूप चलती। इंसान जैसा सोचता है, वैसा नहीं होता, लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि मनुष्य को भविष्य की कोई योजना नहीं बनानी चाहिए। आवश्यकता इस बात की है कि किशोरों और युवाओं को अब इस बात के लिए भी तैयार किया जाए कि उन्हें जीवन में संघर्ष के लिए हमेशा तैयार रहना हर चुनौती का सामना करना आना चाहिए। जिंदगी में ऐसी कोई भी चुनौती या समस्या नहीं है, जिसका कोई समाधान न हो। खास तर से आज के विकसित तकनीकी युग में जहां मनुष्य ने अनेक असंभव चीजों को भी संभव कर दिखाया है, जैसे- कृत्रिम बुद्धि, कृत्रिम कोख, मशीनी मानव या आभासी विश्व का निर्माण आदि। सवाल है कि जब मानव बुद्धि इतना सब कुछ कर सकती हैं, तो अपनी ही समस्याओं का समाधान क्यों नहीं निकाल सकती ? इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि व्यक्तिवाद, आर्थिक असुरक्षा से उत्पन्न हुई अस्थिरता तथा भय एवं असंतोष का मनोविज्ञान ऐसे कारक हैं, जिन्होंने विभिन्न समाजों में विशेष रूप से विकासशील देशों में असमान व असंतुलित विकास को उत्पन्न किया है।

आज हम जिस उपभोक्तावादी, पूंजीवादी और तकनीक से लैस होते समाज में जी रहे हैं, उसमें सामूहिकता का स्थान व्यक्तिवाद ने ले लिया है इतना आत्मकेंद्रित हो गया है कि परिवार और मित्रों अपार लकहर कहें कि व्यक्ति अलग-थलग होकर अपरिचित सा होता जा रहा | रहा है। परिणामस्वरूप वह इतना असुरक्षित और एकाकी बनता जा रहा है कि निराशा और तनाव का आसानी से शिकार होने बनता जा रहा ह लगा है। आज की युवा पीढ़ी की चारित्रिक विशेषताओं को इस संदर्भ में समझने की आवश्यकता है। किशोर पीढ़ी बिना किसी की परवाह किए बिना कोई रोक-टोक स्वच्छंदता से रहने, घूमने तथा अपनी पसंद की जीवन शैली अपनाने और दिखावे के उपभोग की संस्कृति में विश्वास करती है। जब कभी अभिभावक या माता-पिता अपने बच्चों को जीवन के यथार्थ का सामना करने के लिए कहते हैं. शांत रहो या 'बी-कूल' जैसे जुमले बोल कर उनकी बातों को अनसुना कर देते हैं। दूसरी तरफ ऐसा लगता है कि युवा पीढ़ी जिंदगी को यथार्थ में जीने के लिए नहीं, बल्कि उच्च महत्त्वाकांक्षा, ऊंचे दर्जे की नौकरियां, भारी-भरकम वेतन और उच्च ब्रांड वाली जीवनशैली जीने के लिए जीती है। दुर्भाग्य तो कि काम के अत्यधिक दबाव के कारण भविष्य में ये इस लायक नहीं रहते कि अपने अर्जित किए धन और संसाधनों का उपभोग कर सकें या आनंद उठा सकें। संभवतः नई पीढ़ी यह भी नहीं जानती कि उन्हें अपनी जिंदगी से क्या चाहिए? क्या भौतिक संपन्नता, उच्च वेतन और ब्रांड वाली वस्तुओं का उपभोग करना करना ही खुशहाली का प्रतीक है, इस पर सभी को विचार करना चाहिए। अगर परिवार, मित्र और समूह के बिना केवल वस्तुओं के साथ खुशहाल जीवन जिया जा सकता है, तो मनुष्य को सामाजिक प्राणी की श्रेणी मैं रखना उचित नहीं कहा जा सकता। जीवन के स्थान पर मृत्यु का विकल्प चुनना साहस नहीं, कायरता है। आज के दौर में किसी का भी जीवन संघर्ष या चुनौती रहित नहीं हो सकता, लेकिन इनका सामना करना और समाधान निकालना सीखा जा सकता है।

विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब