अर्थव्यवस्था में पिछड़ती ग्रामीण महिलाएं

Aug 9, 2024 - 08:34
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अर्थव्यवस्था में पिछड़ती ग्रामीण महिलाएं
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अर्थव्यवस्था में पिछड़ती ग्रामीण महिलाएं विजय गर्ग

राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण के विश्लेषण से पता चलता है कि भारत की आबादी का लगभग आधा हिस्सा (करीब 48 फीसद) होने के बावजूद महिलाएं सकल घरेलू उत्पाद केवल 18 फीसद का योगदान देती हैं इस अंतर को ग्रामीण महिलाओं के सामने आने वाली विभिन्न चुनौतियों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जिसमें सांस्कृतिक बाधाएं, सीमित अवसर, शिक्षा की कमी और ऋण तक सीमित पहुंच शामिल है।

एक रपट के अनुसार इस लैंगिक अंतर को पाटने 2025 तक भारत की जीडीपी में 18 फीसद की वृद्धि हो सकती है। यह एक सक्षम वातावरण बनाने की जरूरत को रेखांकित करता है। उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका को पहचानते हुए राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन जैसी पहलों से इस अंतर को पाटने और ग्रामीण महिलाओं के लिए आजीविका के अवसरों का विस्तार किया जाना चाहिए। जलवायु परिवर्तन भी ग्रामीण महिलाओं को प्रभावित कर रहा है। असल में ग्रामीण महिलाएं अक्सर दुनिया के गरीब तबकों में होती हैं और अपनी रोजी- रोटी के लिए स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों पर ज्यादा निर्भर रहती हैं।

इस परिवर्तन से पेयजल, भोजन और ईंधन की सुरक्षा पर असर पड़ता है, जिनके लिए महिलाएं भी जिम्मेदार होती हैं। सुखे और बारिश में अनियमितता की वजह महिलाओं को पानी और ईंधन इकट्ठा करने में अधिक समय लगाना पड़ता है। इससे फसलों और पशुओं की सेहत पर भी असर पड़ता है, जिससे महिलाओं को कम भोजन के लिए ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है। सामाजिक संरचनाओं, भेदभावपूर्ण मानदंडों और शिथिल संस्थाओं की वजह से से महिलाओं को पुरुषों की तुलना में अधिक घरेलू काम और बच्चों की देखभाल का बोझ उठाना पड़ता है। इससे उनकी पढ़ाई और नौकरी पाने के अवसर सीमित हो जाते हैं। जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन के लिए ग्रामीण महिलाओं को नेतृत्व दिया जा सकता है।

 उनका कौशल और क्षमता विकास किया जा सकती है। जेंडर- र-केंद्रित सार्वजनिक नीतियां बनाई जा सकती हैं। पिछले एक दशक में ग्रामीण महिलाओं के लिए आजीविका कार्यक्रमों ने उनके उनके समुदायों असाधारण योगदान दिया है। ग्रामीण महिलाओं के अथक प्रयासों को मान्यता देना दूसरों को प्रेरित करता है। इससे अधिक टिकाऊ आजीविका वाले भविष्य की दिशा में बहुत जरूरी बदलाव होता है। हालांकि सरकार अपने स्तर पर प्रयास कर रही हैं, लेकिन आम आदमी के सामाजिक सरोकारों के बिना लक्ष्यों तक पहुंच पाना आसान नहीं है।

"महिलाओं को अधिक समतापूर्ण समाज के लिए सशक्त बनाने के अलावा उनकी आजीविका पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर भी विचार होना चाहिए। अप्रत्याशित मौसम की घटनाएं, बढ़ता तापमान और बारिश के बदलते पैटर्न तेजी से परिदृश्य को बदल रहे हैं, जो एक बड़े खतरे की ओर संकेत करते हैं। 'सीओपी 28' सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन के मुद्दों पर विस्तार से चर्चा हुई। उसमें कहा गया है कि आजीविका पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को देखने के लिए ग्रामीण भारत की ओर रुख करना होगा। महाराष्ट्र में आजीविका कार्यक्रमों पर चर्चा हो रही है और वहां बड़े बदलाव देखने को मिल रहे हैं। इसी तरह अन्य राज्यों में भी आजीविका कार्यक्रमों के अप्रत्याशित परिणाम देखने को मिल रहे हैं।

हालांकि अब भी प्रयासों में और तेजी लाने की दरकार है, जिसके लिए कदम उठाने होंगे। इस तरह के कार्यक्रमों से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह लड़ाई है बदलती जलवायु के सामने महिलाओं की आजीविका बनाए रखने की। यह कहीं अधिक कठिन चुनौती भरा काम है। खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की एक रपट के मुताबिक महिला प्रधान ग्रामीण परिवार जलवायु परिवर्तन के झटकों से असामान्य रूप से प्रभावित होते हैं। एक डिग्री तापमान बढ़ने का अर्थ है पुरुष प्रधान परिवारों की तुलना में उनकी आय में 34 फीसद की भारी गिरावट इससे एक महत्त्वपूर्ण सवाल है कि इस वैश्विक परिवर्तन को देखते हुए राष्ट्रीय जलवायु योजनाओं में अक्सर इन सबसे अधिक जोखिम वाले समुदायों का समर्थन करने के लिए ठोस कार्रवाई की कमी क्यों होती हैं?

जलवायु परिवर्तन नीति निर्माण में महिलाओं का अक्सर कम प्रतिनिधित्व क्यों होता है? एफएओ की रपट के मुताबिक ग्रामीण लोगों पर जलवायु परिवर्तन के असमान प्रभावों का समाधान करने में विफलता संपन्न और निर्धन लोगों तथा पुरुषों और महिलाओं के बीच पहले से मौजूद बड़े अंतर को और अधिक बढ़ा देगी। निम्न और मध्यम आय वाले देशों में ग्रामीण तथा महिला- प्रधान परिवारों को आपदा आने पर पुरुषों की तुलना में पहले से ही अधिक वित्तीय बोझ का सामना करना पड़ता है। अगर वेतन में इन महत्त्वपूर्ण मौजूदा अंतरों को दूर नहीं किया गया, तो यह अंतर और अधिक बढ़ जाएगा। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि वर्तमान वैश्विक तापमान सन 1800 के अंत की तुलना है। में कुल मिलाकर लगभग 1.2 डिग्री सेल्सियस अधिक है, जिसके कारण बाढ़, तूफान और गर्म लहरों जैसे विनाशकारी मौसम में लगातार वृद्धि हो रही है। एफएओ ने कहा कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील हैं, क्योंकि सामाजिक संरचनाएं तथा भेदभावपूर्ण मानदंड बहुत गहरे जड़ें जमा चुके हैं। इनसे लड़ पाना आसान नहीं है।

असल में ग्रामीण क्षेत्रों में गरीब परिवारों की संसाधनों, सेवाओं और नौकरियों तक पहुंच सीमित है, जिससे उनके लिए जलवायु परिवर्तन का सामना करना कठिन हो सकता है। औसतन, गर्मी के कारण वे धनी परिवारों की तुलना पांच फीसद अधिक आय खो देते तथा बाढ़ के कारण चार फीसद से अधिक आमदनी गवां देते हैं। महिलाओं द्वारा संचालित घरों पर तो और अधिक बुरा असर पड़ता है। पुरुषों द्वारा संचालित परिवारों की तुलना में अत्यधिक गर्मी के कारण उनकी आय में लगभग आठ फीसद अधिक तथा बाढ़ के कारण तीन फीसद अधिक नुकसान होता है।

यह रपट यह सोचने को मजबूर करती है कि आखिर हम जलवायु परिवर्तन से ग्रामीण महिलाओं की सुरक्षा किस तरह कर सकते हैं? बड़ा सवाल यह भी है कि आखिर क्या हम सुरक्षा कर भी पाएंगे या नहीं? अगर नहीं कर पाए तो इन महिलाओं का भविष्य क्या होगा ? इनमें से हर हितधारक को अपने-अपने क्षेत्रों में नेतृत्व करना चाहिए और महिलाओं की जरूरतों और अनुभवों के प्रति संवेदनशील प्रयासों के माध्यम से साझीदारी बनाने और सहयोग बढ़ाने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में काम करना चाहिए। उनकी क्षमताओं और संभावनाओं के अनुरूप काम करना चाहिए।

अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय और स्थानीय स्तरों के बीच अधिक संपर्क आवश्यक है, लेकिन साथ ही यह पहचानना भी महत्त्वपूर्ण कि महिलाओं मात्र उपस्थिति इस बात की गारंटी नहीं है अनुभव और नेतृत्व को जलवायु परिवर्तन नीतियों में एकीकृत किया जाएगा। जलवायु परिवर्तन से संबंधित निर्णय लेने के उच्चतम स्तरों पर महिलाओं का अधिक समावेश आवश्यक है। उनको राष्ट्रीय और ग्रामीण स्तर पर भी नेतृत्व करने में सक्षम होना चाहिए। ग्रामीण महिलाओं के दृष्टिकोण और पहल को भी शहरी महिलाओं की तरह सामने लाने की दरकार है।

विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य शैक्षिक स्तंभकार मलोट