डिब्बाबंद भोजन से सेहत को खतरा
डिब्बाबंद भोजन से सेहत को खतरा
विजय गर्ग
हाल में 'एक्सेस टू न्यूट्रीशन इनिशिएटिव' (एटीएनआई) की नई रपट में यह तथ्य सामने आया है कि कुछ प्रमुख वैश्विक कंपनियां भारत जैसे निम्न आय वाले देशों में, उच्च आय वाले देशों की तुलना में कम पौष्टिक खाद्य उत्पाद बेच रही हैं। इस अध्ययन में स्वास्थ्य स्टार रेटिंग प्रणाली का उपयोग किया गया है, जिसमें उत्पादों को एक मानक के अनुसार एक से पांच के बीच बताया जाता है। इसमें 3.5 या उससे अधिक रेटिंग वाले उत्पादों को स्वस्थ माना जाता है। इस रपट के मुताबिक निम्न आय वाले देशों में इन उत्पादों की औसत रेटिंग 1.8 पाई गई, जबकि उच्च आय वाले देशों में यह 2.3 थी। इससे साबित होता है कि गरीब देशों कम गुणवत्ता वाले खाद्य पदार्थ बेचे जा रहे हैं, जो वहां के उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं।
दरअसल, इन देशों में पैकेट में बिकने वाले खाद्य उत्पादों में चीनी, नमक और 'सैचुरेटेड फैट' की मात्रा अधिक पाई गई है। इस रपट : के मुताबिक भारत में "पेप्सिको' के केवल 28 फीसद, 'यूनिलीवर' के 16 फीसद और 'मॉडेलेज' के मात्र दस फीसद उत्पाद स्वास्थ्य के न्यूनतम मानकों पर खरे उतरते हैं। इन कंपनियों के उत्पादों में पोषण की कमी है और इन्हें लंबे समय तक खाने से मोटापा, मधुमेह, हृदय रोग और अन्य गंभीर बीमारियां हो सकती हैं। भारत में, जहां पहले से ही स्वास्थ्य सेवाएं कमजोर हैं और आम जनता के पास स्वास्थ्य देखभाल के सीमित साधन हैं, वहां इस प्रकार के उत्पादों का प्रसार स्थिति को और गंभीर बना देता है। हाल के वर्षों में डिब्बाबंद या पैकेट वाले खाद्य पदार्थों का चलन तेजी से बढ़ा है। शहरीकरण, बदलती जीवनशैली और सुविधाजनक विकल्पों की तलाश ने इन उत्पादों को घर-घर पहुंचा दिया है। हालांकि यह प्रवृत्ति जितनी तेजी से बढ़ी है, उतनी ही तेजी से इस पर सवाल भी उठने लगे हैं। एटीएनआइ की रपट ने पैकेट वाले खाद्य पदार्थ के उन पहलूओं को उजागर किया है, जो न केवल उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं, बल्कि इससे जुड़े उद्योग की नैतिकता और दोहरे मानकों पर भी गंभीर सवाल खड़े करते हैं।
यह समस्या केवल खाद्य उत्पादों तक सीमित नहीं है। सार्वजनिक स्वास्थ्य, उपभोक्ता अधिकार और वैश्विक न्याय जैसे बड़े मुद्दों से भी जुड़ी है। डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों की मांग और उसकी बढ़ती लोकप्रियता का मुख्य कारण इसकी सुविधा और विविधता तो हैं ही, ये लंबे समय तक खराब नहीं होते। ये उत्पाद न केवल झटपट तैयार हो जाते हैं, बल्कि उपभोक्ताओं को स्वाद भी देते हैं। यात्रा के दौरान ले जाने में सुविधाजनक होते हैं। इन खाद्य पदार्थों ने एक विकल्प के रूप में अपनी पहचान बनाई है, लेकिन इस सुविधा की कीमत उपभोक्ताओं को अपने स्वास्थ्य से चुकानी पड़ रही है। भारत में पैकेट फूड बनाने वाले उद्योग का तेजी से विस्तार हो रहा है। यह उद्योग भारतीय अर्थव्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है। बढ़ती आय, शहरीकरण और ई-कामर्स के प्रसार ने इस उद्योग को एक बड़ा बाजार दिया है। देश के हर कोने में इन उत्पादों की पहुंच है, लेकिन इस उद्योग के बढ़ते प्रभाव के साथ, इसके नकारात्मक पहलुओं पर भी ध्यान देना आवश्यक है। प्लास्टिक पैकेजिंग से उत्पन्न कचरा पर्यावरणीय संकट बढ़ा रहा है।
इसके अलावा, इस प्रकार के खाद्य पदार्थ पारंपरिक खानपान और स्थानीय खाद्य संस्कृति को भी प्रभावित कर रहे हैं। विकसित देशों में खाद्य सुरक्षा और गुणवत्ता के सख्त मानकों के कारण वहां के उपभोक्ताओं को उच्च गुणवत्ता वाले उत्पाद मिलते हैं, लेकिन विकासशील देशों में ये कंपनियां गुणवत्ता से समझौता कर रही हैं। यह नीति न केवल अनैतिक है, बल्कि असमानता और अन्याय को भी बढ़ावा देती है। सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि उच्च आय वाले देशों में इन कंपनियों के उत्पादों की पोषण रेटिंग बेहतर होती है, जबकि भारत जैसे देशों में यही कंपनियां निम्न गुणवत्ता वाले उत्पाद बेचती हैं। डिब्बाबंद स्वास्थ्य संबंधी नुकसान स्पष्ट हैं। इनमें नमक, चीनी और 'ट्रांस फैट' की अत्यधिक मात्रा होती है, जो न केवल मोटापा और मधुमेह जैसी बीमारियों का कारण बनती, बल्कि हृदय रोग और कैंसर का खतरा भी बढ़ाती है। इन उत्पादों में आवश्यक पोषक तत्त्वों की कमी होती है, जिसके कारण बच्चों और किशोरों के शारीरिक तथा मानसिक विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
इसके अलावा, इन उत्पादों की आकर्षक पैकेजिंग बच्चों को अपनी ओर आकर्षित करती है, जिससे वे इन्हें खाने के आदी हो जाते हैं। इन खाद्य पदार्थों से बच्चों में मोटापा भी बढ़ रहा है। अत्यधिक चीनी और वसा वाले ये उत्पाद मधुमेह जैसे रोग का खतरा बढ़ाते हैं। साथ ही, इनसे बच्चों की प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर हो सकती है। इससे वे जल्दी बीमार पड़ते हैं। विज्ञापनों से प्रभावित होकर बच्चे घर का खाना छोड़ कर जंक फूड पर निर्भर हो जाते हैं। नतीजा, उनकी आदत बिगड़ जाती है। इन उत्पादों में कई बार कृत्रिम रंग और परिरक्षक होते हैं, जो बच्चों के लिए नुकसानदेह हो सकते हैं। इनसे एलर्जी, पाचन संबंधी समस्याएं और ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई हो सकती है। ऐसे खाद्य पदार्थों का लगातार सेवन बच्चों में ऊर्जा की कमी और थकान का कारण भी बन सकता है। कंपनियां अक्सर लागत में कमी और लाभ बढ़ाने के लिए कम गुणवत्ता वाले उत्पाद इन बाजारों में बेचती हैं। भारत जैसे देशों में, जहां बड़ी आबादी कम कीमत के उत्पादों पर निर्भर करती है, यह एक बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है। निम्न आय वाले देशों में उपभोक्ताओं को पोषण महत्त्व और इन खाद्य उत्पादों में छिपे हानिकारक प्रभावों की सीमित जानकारी होती है। इसके अलावा बड़े ब्रांड की लोकप्रियता और कम कीमत, उपभोक्ताओं को ऐसे उत्पाद खरीदने के लिए प्रेरित करती है। सरकार ने पैकेट फूड उद्योग को विनियमित करने के लिए कई कदम उठाए हैं।
खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम, 2006 के तहत खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) का गठन किया गया, जो खाद्य उत्पादों की गुणवत्ता और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार है। एफएसएसएआई ने पोषण के बारे में जानकारी देना अनिवार्य बनाया है। सरकार ने जागरूकता बढ़ाने के लिए कई अभियान चलाए हैं, लेकिन इन प्रयासों को और मजबूत करने की जरूरत है। यह समझना आवश्यक है कि मुनाफा स्वास्थ्य से अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकता। कंपनियों को उत्पादों की गुणवत्ता में सुधार करना होगा और उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य को प्राथमिकता देनी होगी। पोषक तत्त्वों से भरपूर उत्पाद विकसित करने के लिए उन्हें अनुसंधान और नवाचार में निवेश करना चाहिए। एक स्वस्थ समाज का निर्माण तभी संभव है, जब उपभोक्ता जागरूक हों, सरकार जिम्मेदार हो और उद्योग नैतिकता का पालन करें। यह न केवल उपभोक्ताओं, बल्कि पूरे समाज और पर्यावरण के लिए भी फायदेमंद होगा। स्वास्थ्य और मुनाफे के बीच संतुलन बनाना एक चुनौती हो सकता है, लेकिन यह असंभव नहीं है। स्वस्थ जीवनशैली और पौष्टिक भोजन तक पहुंच सुनिश्चित करना प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब