भरोसे की की दुनिया

Oct 4, 2024 - 13:21
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भरोसे की की दुनिया

पिछले कुछ समय से आसपास कहीं गूंजता मैं ' एक गीत 'पापा की परी हूं बहुत सारी लड़कियों के कान में भी गया होगा। मगर यह सुनते हुए लड़कियों के मन में क्या कहीं यह सवाल भी खड़ा होता है कि लड़कियों को परी क्यों कह दिया गया ? क्या लड़कियां सपनों की तरह होती हैं, बस एक मासूम सा चेहरा, जो हमेशा मुस्कुराती रहे? क्यों लड़के परी के समांतर कुछ और नहीं कहे जाते ? क्यों बड़े नाज से पालते हुए लड़कियों को हर वक्त अहसास दिलाया जाता है कि वे कमजोर हैं और कोई भी उनकी कमजोरी का फायदा उठा सकता है? क्यों उनके लिबास पर तंज कसे जाते हैं और क्यों इतनी रोकटोक लगाई जाती है ?

ये सवाल किसी एक लड़की के नहीं होंगे, बल्कि आज इस तरह के जवाब की मांग उठ चुकी है कि क्यों अपने घर के लड़कों को समानता का पाठ नहीं पढ़ाया जाता ! क्यों उन्हें नहीं समझाया जाता कि लड़की भी एक इंसान है, उसे भी हक है बेटों की तरह बराबरी से जीने का... अपनी सुविधा और इच्छा से पहनने और घूमने का सोच बदलने की जरूरत लड़के की है, जिसके नजरिए से लड़की बस कमजोर, असहाय काया जान पड़ती है। आए दिन महिलाओं के खिलाफ रहे जघन्य अपराध सबूत हैं इस बात के कि बदलाव बहुत जरूरी हो गया है। जरूरी है समझना कि अपराधियों की दरिंदगी महज कुछ घंटों की उपज नहीं है, बल्कि हर गली, हर मोड़ पर, घर, कार्यस्थल, स्कूल-कालेज में हर जगह जाने कितनी बार ऐसी आपराधिक मानसिकता वाले लोगों ने महिलाओं के बारे में क्या-क्या सोचा होगा, क्या राय बनाई होगी।

बलात्कार तो आखिरी चरण का अपराध है, आपराधिक मानसिकता वाले लोगों के भीतर कायम महिलाओं के खिलाफ आपराधिक सोच अपराध की शुरुआती बुनियाद हैं। जब-जब बलात्कार की कोई वीभत्स घटना होती है, तब जनता साथ खड़ी होकर आंदोलन करती है। हर जगह आवाज उठाई जाती है, लेकिन कुछ दिनों बाद मामला फिर शांत हो जाता है। इससे ऐसी आपराधिक प्रवृत्ति वाले लोग और ज्यादा बेलगाम हो जाते हैं । दिल्ली में एक समय 'निर्भया कांड' ने देश भर में लोगों को झकझोर दिया था। तब काफी आंदोलन हुए थे, लेकिन सुरक्षा के नाम पर आजतक शून्य मिल रहा है। आज भी आए दिन महिलाओं के खिलाफ बलात्कार से लेकर हत्या जैसे जघन्य अपराधों को जन्म दिया जा रहा है।

पश्चिम बंगाल के कोलकाता और महाराष्ट्र के बदलापुर की घटना लोगों के संज्ञान में आ सकीं, वरना हर रोज पता नहीं कितनी घटनाएं कैसे होती हैं और दफ्न हो जाती हैं । ऐसा नहीं है कि लड़कियां कुछ कर नहीं सकतीं । अतीत से लेकर आज तक के तमाम उदाहरण भरे पड़े हैं, जिनमें लड़कियों जीवन से लेकर हर क्षेत्र के युद्ध क्षेत्र में अपना परचम लहराया है । आज भी वे ऐसा कर सकती हैं, बस यह सोचने की जरूरत है कि उन्हें बचाने कोई नहीं आ रहा। उन्हें अपना भरोसा खुद ही अर्जित करना है और खुद ही अपनी ताकत बननी है। आज जरूरी हो गया है कि कुछ ठोस पहलकदमी हो, जिससे न केवल अपराधों का सिलसिला थमे, बल्कि अपराधों की जड़ यानी लोगों की सोच में बदलाव हो।

यह जागरूकता अभियान सिर्फ स्कूल-कालेजों के पाठ्यक्रम के मौजूदा स्वरूप तक सीमित नहीं रखा जा सकता, बल्कि उसके लिए शिक्षा के बीच से लेकर समाज के स्तर पर सामाजिक मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षण की जरूरत है। वैसी शिक्षा जरूरी है बच्चों के माता-पिता को यह समझाने के लिए कि लड़का या लड़की, पालने से लेकर बच्चों के साथ बर्ताव तक के हर मामले में लैंगिक भेदभाव न पनपने दिया जाए और अपने बेटों को प्राथमिक स्तर पर महिलाओं को सम्मान देने का पाठ पढ़ाया जाए। हर बार लाचारी का ठीकरा लड़कियों के सिर फोड़ने के बजाय सबके भीतर संवेदनशीलता और जिम्मेदारी के विकास के लक्ष्य से सामाजिक प्रशिक्षण की जरूरत है।

इसके समांतर वैसी लड़कियों को इस स्वरूप में शिक्षा मिले, जो सोचती हैं कि हम कुछ नहीं कर सकतीं। जब लड़की अपनी जान पर खेल कर ऐसे लड़कों को जन्म दे सकती है तो वह सब कर सकती है, जो उसके अपने और स्त्री के अस्तित्व के लिए जरूरी है। सबसे पहले और सबसे ज्यादा जरूरत है। अपने भीतर आत्मविश्वास जगाने की और वह सब कुछ मुमकिन करने के लिए खुद पर भरोसा करने की, जिसे करना नामुमकिन माना जाता रहा है। आज की दुनिया में लड़कियों को जैसी त्रासदी का सामना करना पड़ता है, उसमें उन्हें इस बात पर खुश नहीं होना चाहिए कि उन्हें 'पापा की परी' कह कर संबोधित किया जाता है। बल्कि अब उन्हें अपने सोचने और जीने का ऐसी सलीका सीखना होगा जिसमें अगर कोई उन्हें नुकसान पहुंचाए तो वे ततैया बन कर सामने खड़ी हो जाएं।

 'परी' की तरह प्यारी दिखना ही लड़कियों के जीवन का मकसद नहीं बन जाना चाहिए, बल्कि ततैया की तरह तेज डंक मारने की क्षमता भी रखनी चाहिए, ताकि आपराधिक मानसिकता का कोई व्यक्ति उसके आसपास आने से भी डरे । दशकों से सरकारों से महिलाओं के सुरक्षित जीवन के लिए जो मांग की जाती रही, उसे सरकार ने कितना पूरा किया, यह जगजाहिर है । अब एक स्त्री को अपने लिए तो समूचे समाज को अपने घर की बेटियों, बहनों और बाकी तमाम महिलाओं के जीवन के बारे में ठोस बदलाव के लिए ईमानदार इच्छाशक्ति के साथ सोचने की जरूरत है। महिलाओं के खिलाफ अपराधों के लिए सख्त कानूनी व्यवस्था के समांतर अब सुरक्षित जीवन एक मकसद होना चाहिए ।

विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब