रील टू रियल: सिनेमाई शादी की कहानी का उदय

पिछले एक दशक में, भारत में शादी के उद्योग ने विस्तृत सेट, ड्रोन सिनेमैटोग्राफी और गंतव्य फिल्मों के साथ फिल्म में पारंपरिक से सिनेमाई कहानी कहने के लिए एक विशाल विकास देखा है। आज, उद्योग का मूल्य $ 50 बिलियन से अधिक है और यह बढ़ता जा रहा है। बाजार दिल्ली, मुंबई और बेंगलुरु जैसे महानगरों से आगे बढ़ रहा है, लेकिन इसमें टियर -2 शहर भी शामिल हैं, जिनका विस्तार जारी है। टियर -2 भारत यकीनन इन शहरों में एस्पिरेशनल खपत और डिस्पोजेबल आय वृद्धि के रूप में अपस्केल वेडिंग फिल्म सेवाओं के लिए अगला बड़ा बाजार बन रहा है।
जयपुर, लखनऊ, इंदौर, कोयंबटूर, भुवनेश्वर और देहरादून सहित टियर -2 शहरों से उपभोक्ता व्यय में वृद्धि के साथ भारत में आर्थिक विकास कथा स्थानिक रूप से स्थानांतरित हो रही है। नाइट फ्रैंक के अनुसार, टियर -2 और टियर -3 शहरों में 2023 में भारत में लक्जरी खपत वृद्धि का 40 प्रतिशत से अधिक हिस्सा था। टियर -2 आर्थिक विकास सिर्फ उद्योगपतियों के बीच या अब नहीं हो रहा है - अचल संपत्ति मोगल्स को संपन्न करना, बल्कि सरकारी नौकरशाही में नई दूसरी पीढ़ी के व्यापार परिवारों, ऊर्जावान पेशेवरों और कभी-कभी सिविल सेवा नौकरी धारकों के बीच, जो आकांक्षी प्रीमियम जीवन शैली के अनुभव के लिए तैयार हो गए हैं। शादी का व्यवसाय निस्संदेह इस प्रवृत्ति का एक हिस्सा है। इन शहरों के परिवारों के पास अब बड़े बजट हैं, जिनमें से 20 लाख से अधिक to1 करोड़ से अधिक हैं, न केवल उस दिन के लिए बल्कि वृत्तचित्र - शैली की कहानी भी है जो वे उस दिन को मनाने के लिए करना चाहते हैं। यह एक विशिष्ट वीडियोग्राफर की अधिक उपयोगितावादी बुकिंग के विपरीत है। इंस्टाग्राम और यूट्यूब जैसे प्लेटफार्मों के उद्भव ने हमेशा के लिए शादी की सामग्री के लिए उम्मीदों को बदल दिया है। टियर -2 शहरों में युवा, आकांक्षात्मक जोड़े अब अपनी शादियों के बारे में सोचते हैं न कि पिछले अनुभवों के लेंस के माध्यम से, बल्कि क्यूरेटेड इमेजरी और वीडियो की तुलना में जो वे बड़े शहरों में उत्पादकों से देखते हैं या, तेजी से, विदेश में। हालांकि शादी के प्रभावित और वायरल रीलों का प्रभाव बड़े पैमाने पर है, जोड़े अपने बड़े दिन का एक दृश्य रिकॉर्ड चाहते हैं जो एक सिनेमाई अनुभव भी है।
ओटीटी सामग्री के बढ़ते जोखिम से इस आकांक्षा को और बढ़ावा मिलता है। नेटफ्लिक्स और अमेज़ॅन प्राइम जैसे प्लेटफार्मों के साथ एक व्यापक दर्शकों के लिए सिनेमाई भाषा और सौंदर्यशास्त्र की शुरुआत, औसत उपभोक्ता की दृश्य शब्दावली पहले से कहीं अधिक परिष्कृत है। ऐसे माहौल में, एक शादी की फिल्म को अब विलासिता नहीं माना जाता है; यह एक सामाजिक आवश्यकता बन गई है, विशेष रूप से उन लोगों के लिए जो अपनी शादियों को अपनी स्थिति, स्वाद और रचनात्मकता को प्रतिबिंबित करना चाहते हैं। तकनीकी उन्नति ने उच्च-अंत उत्पादन को अधिक सुलभ बना दिया है। ड्रोन, गिंबल्स, मिररलेस कैमरा और एडिटिंग सॉफ्टवेयर जैसे उपकरण जैसे DaVinci Resolve या Adobe Premiere Pro अब पोर्टेबल और लागत प्रभावी हैं। महानगरीय क्षेत्रों या यहां तक कि क्षेत्रीय केंद्रों के कुशल शादी के फिल्म निर्माता अब पहले की लागतों के एक अंश पर प्रीमियम सेवाओं की पेशकश कर सकते हैं, स्केलेबल संचालन और मॉड्यूलर मूल्य निर्धारण के लिए धन्यवाद। इसने बुटीक फिल्म स्टूडियो और यहां तक कि फ्रीलांसरों को टियर -2 बाजारों में टैप करने की अनुमति दी है। कुछ स्टूडियो पहले ही इन बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिए क्षेत्रीय शाखाओं की स्थापना या स्थानीय प्रतिभा के साथ साझेदारी करना शुरू कर चुके हैं। महत्वपूर्ण रूप से, वे एक पेशेवर कार्य नीति, सौंदर्य संवेदनशीलता और परियोजना प्रबंधन अनुशासन भी लाते हैं जो इन शहरों में ऊपर की ओर मोबाइल ग्राहकों से अपील करता है। दिलचस्प बात यह है कि टियर -2 इंडिया न केवल एक उपभोक्ता है, बल्कि प्रीमियम शादी के अनुभवों की मेजबानी भी करता है।
उदयपुर, जयपुर, भोपाल और कोच्चि जैसे शहर देश भर के परिवारों को आकर्षित करते हुए लोकप्रिय डेस्टिनेशन वेडिंग हब बन गए हैं। यह स्वाभाविक रूप से शादी की फिल्म सेवाओं की आवश्यकता पैदा करता है जो बड़े पैमाने पर रसद को संभाल सकते हैं और एंड-टू-एंड सिनेमाई कवरेज प्रदान कर सकते हैं। इन शहरों में दर्शनीय स्थानों, विरासत वास्तुकला और बेहतर होटल बुनियादी ढांचे की उपस्थिति ने उन्हें लक्जरी शादी की शूटिंग के लिए आदर्श बना दिया है। नतीजतन, स्थानीय सांस्कृतिक समृद्धि के साथ कहानी कहने वाली सेवाओं की मांग अधिक है। इन स्थानों में शूट की गई सिनेमाई शादी की फिल्में अक्सर दोहरे उद्देश्यों की पूर्ति करती हैं - व्यक्तिगत यादगार के रूप में और भविष्य के ग्राहकों को आकर्षित करने वाली आकांक्षात्मक सामग्री के रूप में। दर्जी सामग्री-प्री-वेडिंग टीज़र, पर्दे के पीछे की रील, लाइव स्ट्रीम, उसी दिन के संपादन और वॉयसओवर और सिनेमाई स्कोर के साथ फिल्मों के लिए मांग तेजी से बढ़ रही है। जबकि क्षमता अधिक है, दूर करने के लिए चुनौतियां हैं। टियर -2 शहरों में रसद असंगत हो सकती है - स्थल प्रकाश व्यवस्था, बिजली की आपूर्ति, या अन्य विक्रेताओं के साथ समन्वय मेट्रो शहरों के मानकों को पूरा नहीं कर सकता है। इसके अलावा, ग्राहक अभी भी आक्रामक रूप से बातचीत कर सकते हैं, अक्सर फिल्म निर्माण के रचनात्मक मूल्य को कम करके आंका जा सकता है। हालांकि, ये चुनौतियां अवसरों से संतुलित हैं। अपेक्षाकृत अप्रयुक्त बाजार ग्राहक शिक्षा, स्थानीय सहयोग और सांस्कृतिक रूप से गूंजने वाली कहानी में निवेश करने के इच्छुक स्टूडियो और पेशेवरों के लिए पहला - प्रस्तावक लाभ प्रदान करता है। महत्वपूर्ण रूप से, टियर -2 ग्राहक अधिक वफादार होते हैं - यदि संतुष्ट हैं, तो वे अपने विस्तारित परिवार और सामाजिक सर्कल के भीतर फिल्म निर्माता का उल्लेख करते हैं, जिससे जैविक विकास होता है।
अब अभिजात वर्ग के लिए आरक्षित एक जगह नहीं है, सिनेमाई शादी की कहानी भारत के बढ़ते मध्यम वर्ग में एक भावनात्मक, सांस्कृतिक और आकांक्षी प्रधान बन रही है। शादी के फिल्म निर्माताओं और उत्पादन स्टूडियो के लिए, यह न केवल ग्राहक आधार के विस्तार का प्रतिनिधित्व करता है, बल्कि क्षेत्रीय प्रामाणिकता और राष्ट्रीय उत्कृष्टता में निहित एक ब्रांड बनाने का अवसर भी है। शादी का उछाल अब महानगरों तक ही सीमित नहीं है - यह छोटे शहरों में इस उद्योग को एक बड़ा आधार दे रहा है।
[01) परिवार ऑनलाइन है, भावनाएं ऑफलाइन
आज के दौर की सबसे बड़ी विडंबना यही है परिवार अब स्क्रीन पर दिखते हैं, दिलों में नहीं। एक समय था जब रिश्ते आंगन में पनपते थे। संवाद आंखों से होता था, हालचाल हृदय से जुड़ते थे। पर आज, रिश्ते व्हाट्सएप ग्रुप्स में बदल गए हैं, और संवाद स्माइली और स्टिकर्स में सिमट गया है। हम आधुनिक हो गए, लेकिन क्या सच में संवेदनशील भी रह गए हैं? फैमिली ग्रुप- सूचना का मंच, आत्मीयता शून्य आज लगभग हर घर में कोई न कोई फैमिली रुप जरूर है। पर उसमें आता क्या है? हैप्पी बर्थडे पापा हैप्पी एनिवर्सरी भैया भाभी और शुभ प्रभात लेकिन जब परिवार का कोई सदस्य बाहर जाता है, किसी संकट से जूझता है, या किसी परेशानी में होता है तो वही ग्रुप साइलेंट मोड में चला जाता है। वही सदस्य अपने दोस्तों को पहले बताता है, इंस्टाग्राम स्टोरी पर लोकेशन डालता है... और घर में कोई तीसरा सदस्य 'चौथ' पूछता है ङ्क वो आ गए क्या ?, कब गए थे? क्यों गए थे यह रिश्तों का साक्षात अपमान है। यह बताता है कि हमने तकनीक तो अपना ली, पर आत्मीयता को छोड़ दिया। शब्द हैं, संवाद नहीं समूह है, समर्पण नहीं। आज रिश्ते में बदल गए हैं, जवाब में अटका रहता है, और संवेदना हो चुकी है।
हमने परिवारों को डिजिटल बना दिया है, भावनाओं को म्यूट कर दिया है, और जीवन को फॉरवर्डेड मैसेज में उलझा दिया है। हम विदेश क्यों जाएं, जब हमने घर को ही पराया बना लिया है। हमारे व्यवहार में पश्चिमी जीवनशैली की नकल इतनी गहराई तक समा चुकी है। किभावनाएं बोझ लगती हैं, ज़िम्मेदारियां पुराने ख्याल लगते हैं, और रिश्ते... केवल रीएक्ट और ब्लू टिक तक सीमित रह गए हैं। जहां पहले घर लौटते ही माँ की आंखें दरवाजे पर होती थीं, आज लोकेशन ऑन होती है। जहां पहले हर बात सबसे पहले परिवार को बताई जाती थी, आज + स्टेटस डाल दिया है, सबको पता चल गया होगा जैसी सोच चल रही है। सरकारें इमारतें बना रही हैं, लेकिन हम दिलों की नींव खो रहे हैं आज भारत डिजिटल इंडिया की ओर बढ़ रहा है- सड़कें, पुल, तकनीक, ऐप्स सब उपलब्ध हैं। परंतु यदि भारतीयता की आत्मा - आत्मीयता, परंपरा और परिवार की गरिमा को हमने खो दिया, तो अगली पीढ़ी को खून के रिश्ते सिर्फ स्र में मिलेंगे, एहसासों में नहीं। यह सिर्फ तकनीकी परिवर्तन नहीं यह सामाजिक क्षरण है आजकल कई बुजुर्ग माता-पिता व्हाट्सएप ग्रुप में भी चुपचाप हैं। वे इंतज़ार करते हैं कि कोई पोता- पोती पूछे इ + नाना जी कैसे हैं? +, पर जवाब में सिर्फ लढुस्रा या फॉरवर्डेड भक्ति संदेश आते हैं। यह समाज गूंगा नहीं हुआ है, यह समाज भावनात्मक रूप से बहरा हो गया है।
समाधान की ओर कुछ संकल्प - रिश्ते बचेंगे, तो समाज बचेगा परिवार के ग्रुप को केवल शुभकामना मंच न बनाएं सुख- दुख सब साझा करें। कोई घर से बाहर जा रहा हो, तो ग्रुप पर खुद बताए लोकेशन, कार्य, अनुमानित वापसी। बीमार हो, ऑपरेशन हो, मन उदास हो न बताएं, छिपाएं नहीं। ÷कैसे हो? यह सवाल फोन पर, आवाज़ में, दिल से पूछें न सिर्फ मैसेज से नहीं। महीने में एक बार वीडियो कॉल से पूरे परिवार को जोड़ें जैसे कभी चौपाल लगती थी। आइए रिश्तों को फिर से जीवित कीजिए, वरना पीढ़ियां खो जाएंगी। व्हाट्सएप ग्रुप्स संवाद का माध्यम हो सकते हैं पर संबंधों का विकल्प नहीं। आइए, इस लेख को पढ़कर बस -अच्छा लिखा है: न कहें बल्कि आज ही किसी अपने को फोन करें और कहें ङ मैं हूं... सिर्फ ऑनलाइन नहीं - सच्चे साथ में भी । विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब --+++++ [02) अंकों की होड़ से कुंठित होती प्रतिभाएं विजय गर्ग भारत में बोर्ड परीक्षाएं, विशेष रूप से कक्षा 10 और 12 की, न केवल शैक्षिक उपलब्धियों का मापदंड मानी जाती हैं, बल्कि ये बच्चों, उनके परिवारों और समाज के लिए एक भावनात्मक और सामाजिक घटना भी हैं। इन परिणामों का प्रभाव बच्चों की मानसिक स्थिति, उनके आत्मविश्वास और भविष्य की दिशा पर गहरा असर डालता है। मई-जून के महीने में हिंदुस्तान के हर घर में दस्तक देती है एक जिज्ञासा एक उत्सुकता, एक भय। हर माता-पिता, हर बोर्ड के एग्जाम में बैठा बच्चा हर बीतते हुए दिन को एक ओबसेसन, एक डिप्रेशन एक इनसिक्योरिटी में काट रहा होता है ...कि क्या होगा? साथ ही, समाज में इन परिणामों को लेकर बनने वाली धारणाएं और अपेक्षाएं सामाजिक संरचना को भी प्रभावित करती हैं।
भारत में बोर्ड परीक्षा के परिणामों को अक्सर बच्चे की बुद्धिमत्ता और भविष्य की सफलता का पैमाना मान लिया जाता है। माता-पिता, शिक्षक और समाज की ओर से उच्च अंक प्राप्त करने का दबाव बच्चों में तनाव, चिंता और अवसाद को बढ़ा सकता है। एक अध्ययन के अनुसार, भारत में 60 प्रतिशत से अधिक किशोर परीक्षा परिणामों से पहले और बाद में मानसिक तनाव का अनुभव करते हैं। अच्छे परिणाम बच्चों में आत्मविश्वास बढ़ाते हैं, लेकिन कम अंक या असफलता आत्मसम्मान को ठेस पहुंचा सकती है। कई बच्चे समाज और परिवार की तुलनात्मक मानसिकता के कारण खुद को कमतर महसूस करते हैं, जिससे दीर्घकालिक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ सकते हैं। कक्षा 12 के परिणाम मनचाहे कॉलेज प्रवेश और करिअर विकल्पों को निर्धारित करते हैं। खराब परिणामों के कारण बच्चे भविष्य को लेकर अनिश्चितता और असुरक्षा का अनुभव करते हैं, जो उनके मानसिक स्वास्थ्य को और प्रभावित करता है। कभी नहीं सुना गया कि अमेरिका में बोर्ड एग्जाम के रिजल्ट आ रहे हैं या यूके में लड़कियों ने बाजी मार ली है या आस्ट्रेलिया में किसी छात्र के 99.5 प्रतिशत अंक आए हैं। माता-पिता इस तरह बच्चों को पाल रहे हैं कि कब उनकी अधूरी आकांक्षाएं पूरी होंगी। हमारे पूंजीवादी इनवेस्टर्स को कैसा कामगार चाहिए, इस हिसाब से शिक्षा और उसके उद्देश्य तय हो रहे हैं। एक परिवार सुख-चैन त्याग, दिन-रात खट के, संघर्षों, घोर परिश्रम में गुज़र जाता है।
उस परिवार का पैसा और सहज जीवन इसलिये भेंट चढ़ जाता है क्योंकि आईटी को एक बेहतरीन सॉफ्टवेयर डेवेलपर चाहिए या किसी को बेस्ट ब्रेन चाहिए या कंपनी को बेहतरीन गेम डिजाइनर चाहिए। हमारी शिक्षा व्यवस्था व उसके आदर्श कहां खड़े हैं? हमारे स्कूल देश के आदर्श नागरिक नहीं, देश के बेहतर कामगार बनाने में दिन-रात एक करके जुटे हुए हैं और माता-पिता बच्चों को इंसान नहीं, एक मेकैनिकल डिवाइस बनाने को प्रतिज्ञाबद्ध हैं। बच्चों को सहजता से जीने दो, दुनिया भागी नहीं जा रही। उन्हें बेस्ट एम्प्लॉय नहीं, बेस्ट सिटीजन बनाने की कोशिश कीजिए। बच्चों की भी खुद से कुछ आकांक्षाएं होती हैं, अपने सपने होते हैं। उनका हमारे लिये कोई अर्थ नहीं, लेकिन बच्चों के लिये वे जन्नत से कम नहीं। हम उन्हें मनोरोगी न बनाएं। ये एक हताशा बढ़ाने वाला ही तो है—टॉपर्स की खबरें, उन्हें मिठाई खिलाते माता-पिता की फोटो। क्या ये एक सामान्य स्तर के छात्रों को मानसिक हीनता की अनुभूति नहीं देंगे? टॉपर तो सिर्फ दो-चार होंगे बाकी देश का बोझ तो 99 प्रतिशत इन्हीं फूल से कोमल सामान्य बच्चों ने ही उठाना है। उनकी मुस्कान बनी रहे। देश से उसकी सृजनात्मक शक्ति को विस्तार दें।भविष्य में वे कुछ भी बन जाएं, एमएनसी में सीईओ हो जाएं पर जो बचपन की रिक्तता हमने उन्हें दे दी है, वह उन्हें जीवनभर खलेगी और कुंठाओं के रूप में फलेगी। हम जो बेस्ट सीईओ मिलेंगे, जिनकी प्राथमिकता उनकी कंपनी होगी, देश नहीं। माता-पिता और शिक्षकों को बच्चों पर अनुचित दबाव डालने के बजाय उनकी रुचियों और क्षमताओं को समझने की कोशिश करनी चाहिए। परिणामों को केवल एक मानक नहीं, बल्कि सीखने की प्रक्रिया का हिस्सा मानना चाहिए। बोर्ड परीक्षाओं को केवल अंकों पर केंद्रित करने के बजाय, समग्र विकास पर ध्यान देना चाहिए। करिअर के विकल्पों को बढ़ावा देना और कौशल-आधारित शिक्षा को प्राथमिकता देना समाज और बच्चों के लिए लाभकारी होगा। समाज को यह समझने की जरूरत है कि हर बच्चा अलग है और उसकी सफलता केवल अंकों से नहीं मापी जा सकती।
मीडिया और सोशल मीडिया पर सकारात्मक कहानियों को प्रचारित करना चाहिए, जो असफलता से उबरने और वैकल्पिक रास्तों को अपनाने की प्रेरणा दें। भारत में बोर्ड परीक्षा परिणाम न केवल एक शैक्षिक घटना है, बल्कि इनका बच्चों की मानसिक स्थिति और समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यह जरूरी है कि हम परिणामों को एक अंत के रूप में देखने के बजाय, उन्हें एक शुरुआत के रूप में लें। बच्चों को यह विश्वास दिलाना होगा कि उनकी कीमत केवल अंकों से नहीं, बल्कि उनकी मेहनत, रचनात्मकता और दृढ़ता से तय होती है। समाज, परिवार और शिक्षा प्रणाली को मिलकर एक ऐसी संस्कृति बनानी होगी, जो बच्चों को मानसिक रूप से मजबूत और आत्मविश्वास से भरा बनाए। विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब ++++++++++ [03) बदलते दौर में शहरीकरण हमें आहिस्ता-आहिस्ता मशीन बनाता जा रहा है विजय गर्ग बढ़ता बाजारीकरण हम सबको धीरे-धीरे वस्तु में तब्दील कर रहा । साथ ही बदलते दौर में शहरीकरण हमें आहिस्ता-आहिस्ता मशीन बनाता जा रहा है, जिसमें हम अपनी सहजता खोते जा रहे हैं। अब तमीज के नाम पर अत्यधिक नाप-तोल कर बोलना, दूसरों से अलग दिखने की चाह रखना और व्यक्ति-व्यक्ति के बीच की दूरी बनाना ही प्रगति का परिचायक बनता जा रहा है। मगर इस सबमें हम, हमारा अपना होना कितना खोते जा रहे हैं, इसका हमें भान भी नहीं है । अब सोशल मीडिया पर हमारा आधे से ज्यादा समय मित्रों को बधाइयां देने में रहा है, लेकिन उन्हीं लोगों के बीच संवाद गायब है। क्या हम याद कर सकते हैं कि हम खुलकर कब हंसे थे? अब हम हंसना भूलते जा रहे हैं। कई बार देखने में आता है कि लोग इसलिए किसी के दुख में शामिल होते हैं कि औपचारिकता निभानी है। शामिल नहीं हुए तो लोग क्या कहेंगे? इसलिए दुख के समय भी बहुत से लोग चुपचाप बैठे होते हैं, लेकिन उनकी आंखे और कान कुछ और ही ढूंढ़ रहे होते हैं। इस औपचारिकता में शब्द अपनी गहराई खो रहे हैं। किसी के सुख और दुख में शामिल होना उसे अंदर तक महसूस करना है । इसलिए सोशल मीडिया पर इतने मित्र होने के बावजूद हम कई बार इतनी रिक्तता महसूस करते हैं कि हमें अपने आसपास एक दोस्त नहीं दिखाई देता, जिससे हम मन की बात साझा कर सकें । कितनी ही बार लगता है कि आत्महत्या करनेवाला व्यक्ति अगर अपने मन की बात कह पाता तो शायद ऐसा नहीं होता ।
हम हर दिन देखते हैं कि विभिन्न आयोजनों में मंचों पर या ढोल आदि पर नृत्य बेहद औपचारिक दिखाई देते हैं । उनमें वह तड़प दिखाई नहीं देती है। जो नृत्य हमारी आत्मा से होता हुआ शरीर से फूटकर बाहर आता है, वैसा नृत्य कितना स्वाभाविक होता है। ऐसे नृत्य की किसी धुन पर नर्तक का शरीर ही नहीं, रोम-रोम नृत्य करने लगता है। अब समूहों में होने वाले स्वाभाविक लोकनृत्य अपनी समृद्ध परंपरा खोते जा रहे हैं। एक जैसे बेजान नृत्यों की औपचारिकता वह आनंद नहीं देती । आज सबसे ज्यादा समय हमारा स्मार्टफोन ले रहा है। एक ही कमरे में बैठे उस परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने फोन के स्क्रीन में गुम होते हैं। बच्चों को भी बड़ों को देखकर फोन की ऐसी लत लगने लगी है कि कई बार माताओं को छोटे बच्चों को खाना खिलाते समय भी सेलफोन हाथ में पकड़ाना पड़ता है। बहुत से परिवारों और परिजनों के बीच में महज औपचारिक बातचीत ही हो पाती है, जिससे उनके बीच एक दूसरे को न समझ पाना, कई प्रकार की भ्रांतियों का जन्म लेना, अविश्वास और दूरियां बढ़ते जाना जैसी स्थितियां बन रही हैं, जिनका सीधा रिश्तों पर असर पड़ता है। आज बाजार इस कदर हावी है कि हम अपने आपको हर तरह से आत्मनिर्भर मानने लगे हैं और यह अब हमारे व्यवहारों से झलकने लगा है कि मुझे किसी की जरूरत नहीं। इससे जीवन मूल्यों का भी ह्रास होने लगा है। भौतिक रूप से बने क्लोन पर तो रोक लगने की बातें भी हुई हैं, लेकिन रोबोट में भावनाएं डालने की बात अब की जा रही है। मगर क्या यह रोबोट हमारे सुख, दुख का साथी हो सकता है ? आज कृत्रिम बुद्धिमत्ता का शोर जोरों पर है, लेकिन क्या वह कल्पना की उड़ान और उसके भाव पकड़ सकता है ? बाजार चमक रहे हैं, प्रचार हमें अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। अब त्योहारों का मतलब मिलना - तुलना कम और दिखना - दिखाना होता जा रहा है, जिसमें 'उसकी कमीज मेरी कमीज से सफेद कैसे ' की बू आती है।
हम वस्तुवादी होते जा रहे हैं। कई मर्तबा हमें त्योहारों पर कपड़ों की जरूरत नहीं होती, तब भी हम खरीदारी कर रहे हैं, क्योंकि बाजार में नए चलन के कपड़े आ रहे हैं। त्योहारों पर मोबाइल या गाड़ी बदलना एक फैशन बनता जा रहा है। हम वस्तुओं में खुशियों को ढूंढ़ रहे हैं। हमारे पास मोबाइल नहीं है या कोई वाहन नहीं है तो इसे लेने का एक तर्क हो सकता है, लेकिन क्या हर बार नया ब्रांड लेना अनिवार्य है ? 'इस्तेमाल करो और फेंको' की संस्कृति फल-फूल रही है। ये चीजों का फेंकना ही नहीं है, बल्कि रिश्तों का भी अपने जीवन से निकालना है। हम जैसे चीजों से व्यवहार करते हैं, वह हमारे व्यवहार करने के तरीके का हिस्सा बनता जाता है और फिर वह मानवीय व्यवहारों से भी अछूता नहीं रहता है। तकनीक एक सुविधा है, समाधान नहीं है। हमें सहयोग और ज्ञान साझा करने वाली संस्कृति को बचाए रखने की जरूरत है, जिससे आपसी रिश्ते मजबूत हों। जीवन में मुश्किलें हर एक के साथ अलग-अलग तरह की हो सकती हैं, लेकिन हम कैसे सहजता से उनका सामना करते हैं, यही जीवन जीने की कला है। यह कला हम सबके अंदर है, उसे बचाए रखने की जरूरत है। उसकी चमक को धूप और अंधड़ों से बचाए रखना है । आज कैलकुलेटर मनुष्य से अधिक सटीक तरीके और तेजी से गणना कर - सकता है, लेकिन वह उपज मानव की ही है। मानव मस्तिष्क स्वाभाविक रूप से अवलोकन, सीखने और खोज के द्वारा विकसित हुआ है।
मशीनों में कोई भावनात्मकता नहीं है। भावनाएं मानव मस्तिष्क को विकसित करने में एक प्रमुख भूमिका निभाती हैं। मशीन वही कर सकती है, जिसके लिए उसे बनाया गया है। मशीन नया नहीं रच सकती, लेकिन मनुष्य नया रच सकता है। आज मशीनीकरण के चलते नया रचना कम होता जा रहा है। हमें सहयोग और ज्ञान साझा करने वाली ऐसी संस्कृति बनाने की जरूरत है, जिसमें रिश्ते मजबूत हों, उनमें स्नेह बचा रहे । इंसान सिर्फ दिमाग से ही नहीं, बल्कि अपने दिल से भी नियंत्रित होता है । मानव मस्तिष्क और हृदय निकटता से जुड़ा हुआ होता है। ये दोनों मिलकर उसे एक भावनात्मक रूप से संपूर्ण इंसान बनाते हैं, जिसका कोई तोड़ नहीं । विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब ++++++++++ [04) यूक्लिड की प्रेरक कहानी - छात्रों और माता-पिता के लिए एक सबक विजय गर्ग 2,000 साल से अधिक समय पहले, मिस्र के अलेक्जेंड्रिया नामक स्थान पर यूक्लिड नाम का एक शांत व्यक्ति रहता था। वह एक सेलिब्रिटी नहीं, एक राजा नहीं, एक योद्धा भी नहीं था। वह एक शिक्षक था - जो गणित से प्यार करता था और दूसरों को भी इसे समझने में मदद करना चाहता था। आज, यूक्लिड को ज्यामिति का जनक कहा जाता है। लेकिन शीर्षक को आपको डराने न दें - उनकी कहानी हर छात्र है और हर माता-पिता इससे सीख सकते हैं। एक राजा से एक प्रश्न एक दिन, टॉलेमी नाम के एक शक्तिशाली राजा ने यूक्लिड से एक सरल प्रश्न पूछा: "क्या आपके द्वारा लिखी गई इस पुस्तक से ज्यामिति सीखने का कोई आसान तरीका नहीं है उस पुस्तक को "तत्व" कहा जाता था, और यह दुनिया में सबसे अधिक इस्तेमाल की जाने वाली गणित की पाठ्यपुस्तक बन गई - 2,000 से अधिक वर्षों के लिए! लेकिन यूक्लिड ने राजा को शॉर्टकट नहीं दिया। इसके बजाय, उसने जवाब दिया: "ज्यामिति के लिए कोई शाही सड़क नहीं है इसका मतलब है: आप प्रक्रिया को छोड़ नहीं सकते। भले ही आप राजा हों। भले ही आप स्मार्ट हों। अगर आप चाहें तो भी यह आसान नहीं था। आपको सीखना, अभ्यास करना और बढ़ना होगा। छात्र क्या सीख सकते हैं गणित कभी-कभी कठिन होता है - हम इसे प्राप्त करते हैं।
लेकिन यूक्लिड के पास कैलकुलेटर नहीं था। या एक व्हाइटबोर्ड। या वीडियो। उसके पास बस एक कम्पास, एक शासक और उसका मन था। और उसी के साथ, उन्होंने आधुनिक गणित और विज्ञान की नींव बनाई। यदि वह इसे कम कर सकता है, तो आप इसे अधिक के साथ कर सकते हैं - जब तक आप खुद पर विश्वास करते हैं और धैर्य रखते हैं। याद है: आपको पहली बार सब कुछ सही करने की आवश्यकता नहीं है। गलतियाँ करना सीखने का हिस्सा है। हर बार जब आप कोशिश करते हैं, तो आप बेहतर हो रहे हैं। आप अगले यूक्लिड (या शायद आप करेंगे!) नहीं बन सकते हैं, लेकिन आप मजबूत, होशियार और अधिक आश्वस्त हो जाएंगे। माता-पिता क्या सीख सकते हैं कई बच्चे गणित के साथ संघर्ष करते हैं, इसलिए नहीं कि वे स्मार्ट नहीं हैं - बल्कि इसलिए कि वे दबाव महसूस करते हैं, भागते हैं, या असफल होने से डरते हैं। यूक्लिड की कहानी हमें कुछ शक्तिशाली सिखाती है: कोई शॉर्टकट नहीं हैं, लेकिन सीखने का समर्थन करने के बेहतर तरीके हैं। संघर्ष करते समय अपने बच्चे को प्रोत्साहित करें। प्रयास का जश्न मनाएं, न कि केवल सही उत्तर। प्राकृतिक रूप से गणित सिखाने के लिए वास्तविक जीवन की स्थितियों (खरीदारी, खाना पकाने, बजट) का उपयोग करें। उन्हें याद दिलाएं: अभी तक पता नहीं चलना ठीक है। आपको गणित विशेषज्ञ होने की आवश्यकता नहीं है - बस एक चीयरलीडर और एक मार्गदर्शक बनें।
✨ अंतिम विचार छात्रों के लिए: कोशिश करते रहें, भले ही यह कठिन हो। आप स्पष्ट रूप से सोचना सीख रहे हैं - और यह जीवन के लिए एक कौशल है। आप स्मार्ट हैं, और आप सक्षम हैं। माता-पिता के लिए: आपके बच्चे में आपका विश्वास आपके जानने से ज्यादा मायने रखता है। सीखने में समय लगता है। तो आत्मविश्वास करता है। यूक्लिड एक दिन में प्रसिद्ध नहीं हुआ - वह सुसंगत होकर महान बन गया। आप आगे क्या कर सकते हैं: छात्र: आप अभी किस गणित विषय पर काम कर रहे हैं? आज एक समस्या को हल करने का प्रयास करें - भले ही यह कुछ प्रयास करे। माता-पिता: अपने बच्चे को इस सप्ताह गणित में सीखी गई एक बात सिखाने के लिए कहें। यह उन्हें याद रखने में मदद करता है - और यह आपको परवाह दिखाता है। इस कहानी को एक दोस्त, एक साथी माता-पिता या एक छात्र के साथ साझा करें जिसे प्रोत्साहन की आवश्यकता है। याद रखें: हर बार जब आप कुछ नया सीखते हैं, तो आप अपना रास्ता खुद चला रहे होते हैं - जैसे यूक्लिड ने किया था ।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्राचार्य शैक्षिक स्तंभकार मलोट पंजाब