बेटियां: विरासत नहीं, संवेदना का सच

Jun 18, 2025 - 07:58
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बेटियां: विरासत नहीं, संवेदना का सच

भारतीय समाज में सदियों से यह धारणा रही है कि बेटा ही वंश चलाता है, बेटा ही अर्थी को कंधा देगा, बेटा ही संपत्ति का उत्तराधिकारी होगा. यह सोच न सिर्फ बेटियों को दोयम दर्जे में धकेलती है, बल्कि मानवीय संवेदनाओं को भी ठेस पहुंचाती है. पर समय ने बार-बार यह सिद्ध किया है कि वंश केवल नाम का नहीं होता, वंश वह संवेदना है जिसे कोई भी आगे बढ़ा सकता है।

कितनी ही बेटियाँ हैं जो अपने बूढ़े माँ-बाप की सेवा करती हैं, उन्हें सहारा देती हैं और उनकी अंतिम इच्छा तक निभाती हैं. आँसुओं की तासीर एक-सी क्यों होती है ? जब किसी घर में दुख आता है, तो आँसू किसी रिश्ते, लिंग या वर्ग को नहीं देखते. माँ की ममता और बेटी का दुलार - दोनों में दर्द की वही भाषा होती है. मौत एक ऐसी सच्चाई है जो सबको एक छतरी के नीचे खड़ा कर देती है. उस क्षण न कोई बेटा बड़ा होता है न बेटी छोटी. उस क्षण सिर्फ़ इंसान होता है - समर्पित, भावुक, टूटता हुआ. हमारे समाज में मृत्यु के बाद का अनुष्ठान बेटे के जिम्मे होता है. बदलते सामाजिक समीकरण आज का भारत एक संक्रमण काल से गुजर रहा है, जहाँ बेटियों को पढ़ाया जा रहा है, आत्मनिर्भर बनाया जा रहा है, पर मानसिकता का बदला जाना अभी अधूरा है. 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' का नारा तो है, पर क्या हम बेटियों को जीवन के हर अधिकार में समान दर्जा दे पा रहे हैं? क्या उन्हें संपत्ति, परंपरा और निर्णयों में बराबरी का स्थान मिल रहा है? अनुभवों की कहानियाँ: बेटियाँ जिन्होंने समाज को बदला राजस्थान के छोटे गाँवों से लेकर महानगरों तक, हजारों बेटियाँ अपने माता-पिता के लिए वह संबल बनीं हैं जिसकी कल्पना समाज बेटों से करता था. एक उदाहरण महाराष्ट्र की प्रियंका का है, जिसने अपने पिता की मृत्यु पर विधिवत अंतिम संस्कार किया, गाँव ने विरोध किया, पर वह डटी रही. आज गाँव की अन्य लड़कियाँ उसे अपना आदर्श मानती हैं. क्या यह प्रेम, यह समर्पण विरासत का हिस्सा नहीं है ?

कानून क्या कहता है ? भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 2005 के संशोधन के बाद बेटियों को संपत्ति में बराबरी का अधिकार मिला है. पर सामाजिक स्तर पर यह अधिकार कितनी बार स्वीकारा गया है? अदालतें भले ही बेटियों को बराबरी दें, पर समाज अब भी मानसिक तौर पर इस बदलाव को पूरी तरह आत्मसात नहीं कर पाया है. कई बार बेटियों को स्वेच्छा से 'हक छोड़ने' के लिए मजबूर किया जाता है ताकि बेटों का हिस्सा बना रहे. यह 'त्याग' नहीं, एक सुनियोजित सामाजिक दबाव है. बेटियों को कमजोर क्यों समझा जाता है ? संवेदनशील होना कमजोरी नहीं होती. सहनशीलता को ही हमने दुर्बलता मान लिया है. बेटियाँ घर की शांति होती हैं, स्नेह का प्रवाह होती हैं और दुख की सबसे पहली साथी होती हैं. अगर यही गुण बेटे में हों, तो उन्हें 'समझदार' कहा जाता है, फिर बेटियों को 'कमजोर' क्यों? बेटियाँ अक्सर परिवार की भावनात्मक रीढ़ होती हैं. वे संघर्षों को चुपचाप सहती हैं और फिर भी मुस्कुराती हैं. क्या यह शक्ति नहीं ? पीढ़ियों की सोच में बदलाव की जरूरत - बेटा ज़रूरी है - यह सोच एक सामाजिक भ्रम है।

 वंश वही चलता है जहाँ संस्कार होते हैं, और संस्कार बेटा या बेटी में नहीं, पालन- पोषण और संबंध में होते हैं. जो बेटी पिता की चिता को अग्नि दे, क्या वह उससे कम है जो पिता की तस्वीर पर माला चढ़ाता है ? नयी पीढ़ी को यह समझना होगा कि परिवार की जिम्मेदारियाँ केवल बेटों की नहीं होतीं. बेटियाँ भी माँ-बाप की बुढ़ापे की लाठी हो सकती हैं, अगर समाज उन्हें वह अवसर और अधिकार दे. विरासत सिर्फ़ ज़मीन या नाम नहीं होती- विरासत वह भी होती है जो आँसुओं में झलकती है, जो संवेदनाओं में बहती है, जो संस्कारों में जीती है. बेटियाँ वह विरासत हैं जो सिर्फ़ खून का नहीं, प्रेम और सेवा का रिश्ता आगे बढ़ाती हैं. मीडिया और लोकप्रिय संस्कृति में बदलाव की जरूरत- हमारे टेलीविजन धारावाहिकों और फिल्मों में बेटियों को या तो बोझ के रूप में या फिर त्याग की देवी के रूप में दिखाया जाता है. यह चरम सीमाएँ हैं. हमें ज़रूरत है ऐसी कहानियों की जो बेटियों को वास्तविक, सशक्त और स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत करें. हमारी जिम्मेदारी समाज को चाहिए कि वह बेटियों को केवल एक विकल्प के रूप में न देखे, बल्कि उन्हें एक पूर्ण, सक्षम उत्तराधिकारी माने. बेटियों की शिक्षा, सुरक्षा और सम्मान सिर्फ़ नारे नहीं, एक गहरी सामाजिक क्रांति की शुरुआत है. स्कूलों में समानता की शिक्षा हो, पंचायतों में बेटियों की भागीदारी हो, और घरों में उनके फैसलों को सम्मान मिले- तभी यह बदलाव स्थायी होगा. बेटियों की परवरिश करते समय यह न सोचें कि “कल तो पराई हो जाएगी,” बल्कि सोचें कि "यह मेरी आज की ताकत है." आज के दौर में जब परिवार, रिश्ते और मूल्यों की परिभाषाएं बदल रही हैं, तब बेटियों की भूमिका को एक बार फिर नए दृष्टिकोण से समझना जरूरी है।

 वे केवल सहारा नहीं, शक्ति हैं. वे सिर्फ़ संवेदना नहीं, उत्तराधिकार की हक़दार हैं. बेटियाँ सिर्फ रिश्तों की गारंटी नहीं हैं, वे समाज की रीढ़ भी हैं. उनकी आँखों में अपने पिता के लिए वही चिंता, वही अपनापन, वही असीम प्रेम है जो किसी भी बेटे में होता है-बल्कि कई बार उससे कहीं अधिक. उन्हें हाशिए से उठाकर केंद्र में लाना, उन्हें सिर्फ़ 'बेटी' नहीं, 'वारिस' मानना ही सच्ची सामाजिक प्रगति होगी।

 विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब