कुल्फ़ी

May 26, 2025 - 11:58
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कुल्फ़ी

महीना खत्म होने पर था, पर खत्म होने में नहीं आता था। सोच रहा था कि महीने के प्रथम पन्द्रह दिन कैसे झटपट खत्म हो जाते हैं और तनख़्वाह भी उन्हीं पन्द्रह दिनों के साथ ही कैसे गायब हो जाती है। मुझे चटाई चुभ रही थी। करवट बदलकर पीठ पर हाथ फेरा तो चटाई के निशान पीठ पर उभर आए थे। ‘मलाई वाली कुल्फ़ी!’ ठंडी-सर्द आवाज़ में कुल्फ़ी वाले ने हांक लगाई। उसकी आवाज़ कितनी ही देर मेरे कानों में गूंजती रही। दूध जैसी सफेद कुल्फ़ी साकार मेरी आंखों के सामने नाचने लगी।

मेरे मुंह में पानी आ गया। लेकिन मैं बेबस था। पैसे की तंगी हवालात की तंगी से भी बड़ी होती है। मैंने अपने दिल की चाह से बचने के लिए ‘कुल्फ़ी’ शब्द की उत्पत्ति पर विचार करने की आड़ ले ली। ‘कुल्फ़’ का अर्थ होता है- ताला, सुनारों ने गहनों में इसको लगाकर ‘कुल्फ़’ से ‘कुल्फ़ी’ बना दिया। कुल्फ़ी को भी टीन के सांचों में बन्द करके जमाया जाता है, इसलिए कुल्फ़ी। इस प्रकार धीरे-धीरे पता नहीं कब, नींद ने कुल्फ़ी से मुझे मुक्त कर दिया। मेरी दोपहर की नींद अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि मेरे छोटे बेटे ने मुझे झंझोड़कर जगा दिया। मैं खीझा हुआ था, पर बेटे की तोतली आवाज़ ने मुझे शान्त कर दिया। ‘दा जी, कितनी आवाज़ें लगाईं, तुम जागते ही नहीं।’ ‘हां-हां, तू क्या कहता है, बता भी।’ मैंने कुछ उतावला होकर पूछा। ‘तका... एक तका दे दो, दा जी!’ पर टका मेरे पास था ही नहीं। मेरे पास आज कुछ भी नहीं था। जून माह की छब्बीस तारीख़ थी। घर का खर्च, बाज़ार की उधारी की साख पर बमुश्किल चल रहा था। ‘तका दो भी न दा जी।’ बाहर मुरमुरे वाला ऊंची आवाज़ में हमारे दरवाजे के आगे हांक लगा रहा था। कोई उत्तर सोचने की खातिर समय निकालने के लिए मैंने कहा, ‘काका, तू टके का क्या करेगा?’ ‘खर्च करूंगा, और मैंने क्या करना है तके का?’ मुझे पता है, पहली जंग के बाद बहुत महंगाई हो गई थी, हमे धेला खर्च करने के लिए मिलता था और धेले के मसद्दी राम से लाए हुए छोले खत्म होने में ही नहीं आते थे। अब तो एक आना में भी उतने छोले नहीं मिल सकते थे और मेरी आमदनी, मेरे पिता की आमदनी के पासंग भी नहीं थी, हालांकि मेरी पढ़ाई मेरे पिता से कई गुणा अधिक थी। मैं दुनिया की आर्थिक स्थिति और इस स्थिति को बनाये रखने वाले धन-कुबेरों पर विचार करने लग पड़ा।

बाहर से पुनः ‘मुरमुरा छोले’ की हांक गूंजी और साथ ही बेटे ने कहा, ‘तका दो भी न, दा जी।’ ‘टका खराब होता है।’ मैंने हालात से पैदा हुई बदहवासी में कहा। ‘हूं, तका भी कहीं खराब होता है, दा जी? तके का मुरमुरा आता है।’ ‘मुरमुरा खराब होता है।’ मैंने कहा और बाकी की बात अभी मेरे मुंह में ही थी कि बेटे ने कहा, ‘मुरमुरा तो मीठा होता है।’ इस दलील का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मैं भी मीठे का लोभी हूं, पर फिर भी मैंने अपनी कोरी होशियारी जताते हुए कहा, ‘मुरमुरे से खांसी लग जाती है, बच्चू।’ ‘तुम तका दे दो। मुझे नहीं लगती खांसी।’ लड़का मचलता प्रतीत होता था। टका मेरे पास था ही नहीं। मैंने बेटे को टालने के लिए पता नहीं क्यों उसको कह दिया, शायद बड़ा लालच देकर भुलाने के लिए... ‘मुरमुरा गन्दा होता है! हम शाम को बाज़ार से कुल्फ़ी खाएंगे।’ मुरमुरे-छोले वाला अब टल चुका था। बेटा मेरी आशा के विपरीत कुल्फ़ी खाने के लिए मान गया था। समझा, बला टली। मैंने सोचा, कहीं कोई और छाबड़ीवाला न आ जाए। सो, मैं कपड़े पहनकर कड़कती धूप में बाहर निकल गया और सड़कों पर समय क़त्ल करता रहा। कीमती समय मैं एक टके की मांग से बचने के लिए नष्ट करता रहा था। मैं अपने मालिक से क्यों नहीं कहता कि मेरा इतने में गुजारा नहीं होता, पर सुनेगा कौन? अकेले व्यक्ति की आवाज़ चाहे कितनी ही ऊंची क्यों न हो, सुनी नहीं जाती। ज़रूरतमंद इकट्ठे हो नहीं सकते। अगर हो जाएं तो उन्हें इकट्ठा रहने नहीं दिया जाता ताकि सब मिलकर मांग न करें। मांग करने पर कई बार नौकरी से जवाब मिल जाता है। मैं डर गया। बेरोजगारी के भयानक भविष्य ने मुझे कंपा दिया। कायरों की भांति मैं सदैव चुप रहा था और अब भी चुप रहने का ही मैंने फैसला किया।

शाम को यह समझकर कि बेटा जल्दी सो जाता है, मैं दबे पांव घर पहुंचा। आवाज़ नहीं लगाई, केवल कुण्डा ही खटखटाया। ऊपर से आवाज़ आई, ‘दा जी, आ रहा हूं।’ और कुछ ही देर में बेटे ने आकर दरवाज़ा खोला। ‘दा जी, कुल्फी खाने जाओगे?’ उसने आशा भरी आवाज़ में पूछा। ‘ऊपर चल, ऊपर।’ मैंने कहा। बेटा निराश होकर आगे-आगे चल पड़ा। चारपाई पर बैठकर बेटे को गोद में लेकर मैंने प्यार से कहा, ‘अब तो रात हो गई है, कुल्फ़ी कल खाएंगे।’ आशा के विपरीत बेटा चुप रहा। कितनी ही देर आसमान की ओर देखता कुछ सोचता रहा। फिर बोला, ‘दा जी... ताले (तारे) लुपये (रुपये) होते हैं न, बला (बड़ा) भाई कहता था, ताले लुपये होते हैं, तो दा जी सारे लुपये हमाले कोठे पे क्यों नहीं गिल पड़ते?’ मैंने यह कहकर कि ‘तारे रुपये नहीं होते’ मानो उसके स्वर्ग को ढाह दिया। वह चारपाई पर लेट गया और आसमान की ओर देखते-देखते आखि़र सो ही गया। दूसरे दिन काम पर मैं अपने साथियों से कुछ मांगने की कोशिश करता रहा, पर हिम्मत नहीं हो रही थी। मांगना बहुत ही कठिन काम है। मौत जितना दुःख होता है मांगने में। आखि़र एक साथी से मैंने तीन रुपये ले ही लिए। जब घर आया तो बेटा दोपहर की नींद ले रहा था। रोटी खिलाते समय पत्नी ने तीन रुपये झटक लिए। आधा मन लकड़ियां, शाम की सब्ज़ी, नमक, तेल आदि में बेटे के जागने से पहले तीन रुपये खत्म हो गए। मैंने कहा कि बेटे को कुल्फ़ी खिलानी है, पर उसने कह दिया, ‘इसे बड़ा याद रहता है। मैं टका दे दूंगी मुरमुरे के लिए।’ बेटे ने जागते ही कुल्फ़ी मांगी। चीख़-पुकार मच गई। कल वाला मुरमुरा और टका मंजूर नहीं था। आखि़र शाम को कुल्फ़ी खिलाने का वायदा करके छुटकारा पाया और बेटे ने टका मेरे से जमा करवा दिया। शाम से पहले ही मैं किसी से मिलने का बहाना बनाकर बाहर निकल गया और फिर देर रात घर में घुसा। बेटे को सोया देख मैंने राहत की सांस ली।

रोटी खिलाते हुए पत्नी ने बताया कि बेटा बहुत देर तक मेरा इंतज़ार करता रहा था। मैं बेटे के संग लेटकर बहुत बेचैन रहा। नींद आ ही नहीं रही थी, पर आखि़र पता नहीं कब आ गई। नींद तो कहते हैं कि कांटों पर भी आ जाती है। आधी रात के बाद का समय था। बेटा सोया हुआ कुछ बेचैन प्रतीत होता था। उसने दो-तीन बार पेट पर टांगें मारी थीं। अब उसने बांह उलटाकर मेरे मुंह पर मारी। जाग तो मैं पहले ही रहा था, अब चेतन हो गया। बेटा कुछ बुदबुदाया। मेरी समझ में कुछ न आया। फिर वह ज़ोर-ज़ोर से बुदबुदाया ‘कुल्फ़ी... कुल्फी दा... जी, कुल्फी।’ मैं विह्वल हो उठा। ‘जाग रहे हो,’ पत्नी ने कहा और यह जानकर कि मैं जाग रहा हूं, उसने कहना जारी रखा, ‘कमबख़्त, सोया-सोया भी कुल्फ़ी मांगता है।’ मेरे ऊपर मानो बिजली गिर पड़ी थी। मैं चुप रहा और बेटा भी चुप हो गया। सुबह उठकर बेटे ने कुल्फ़ी की कोई मांग नहीं की। मेरे काम से लौटकर आने पर भी उसने मुझसे कुछ नहीं मांगा। रोटी खाकर मैं दोपहर की नींद लेने के लिए लेट गया, उसी चुभने वाली चटाई पर और उधार न ले सकने की असफलता पर झुंझलाता रहा। फिर मुझे नींद आ गई। मैं अभी अर्द्धनिद्रा में ही था कि गली में किसी कुल्फ़ी वाले ने हांक लगाई, ‘ठंडी कुल्फ़ी! मज़ेदार कुल्फ़ी!’ मैं जाग गया। बेटा मेरे करीब रबड़ की फटी हुई बत्तख से खेल रहा था। दूसरी आवाज़ पर उसके कान ख़ड़े हो गए। बत्तख को फेंककर वह दौड़ पड़ा। दरवाज़े के पास जाकर वह खड़े होकर बाहर देखने लगा। मैंने सोचा, अब वह मुझे जगाने आएगा, पर वह वहीं खड़ा रहा। फिर वह बाहर की ओर चल दिया। मैं चुपचाप उठकर दरवाज़े की ओट में जा खड़ा हुआ। कुल्फ़ी वाला सामने वाले शाह जी के लड़के को कुल्फ़ी निकालकर देने के काम में लगा था। यह लड़का गली का बलवान लड़का था और अपने से छोटे लड़कों को हमेशा पीटा करता था। यह कोई आठ बरस का था और हमारे बेटे से करीब तीन साल बड़ा था। मेरा बेटा सिपाहियों की तरह टांगे फैलाये कमर के पीछे हाथ बांधे खड़ा था। कुल्फ़ी की तरफ वह गौर से देख रहा था। लेकिन उसने कुल्फीवाले से कुल्फ़ी नहीं मांगी थी। जैसे ही कुल्फ़ीवाले ने शाह के लड़के के हाथ में कुल्फ़ी की प्लेट रखी, मेरा बेटा उस पर झपटकर पड़ा। वो गिरी प्लेट, वो गई कुल्फ़ी, फलूदा और चम्मच और नाली में गिरा शाह का लड़का। किसी विजेता की तरह मेरा बेटा उसकी ओर देखता रहा। शाह का लड़का गुस्से में उठा, कुल्फ़ी का हुआ नुकसान और अपनी हेठी जैसे उसमें नया जोश भर रही थी। जैसे ही वह उठा, मेरे बेटे ने फिर उसको ऐसी ठोकर मारी कि वह फिर मोरी में जा गिरा और चीखने-चिल्लाने लगा। कुल्फ़ी वाला बेटे की ओर चांटा मारने के लिए बढ़ा।

मैंने दौड़कर बेटे को उठा लिया। कुल्फ़ी वाले ने शाह के लड़के को उठाया। शाहनी जो किसी का उलाहना नहीं सुनती थी, आज हमारे घर उलाहना देने आई। मेरे बेटे का शरीर तप रहा था। पत्नी ने कहा, ‘आ गया कमबख़्त! तू अब उलाहने भी लाने लगा?’ और मारने के लिए उसने अपना हाथ हवा में उठाया। मैंने उसे रोकते हुए कहा, ‘कुछ बांट पगली! कायर बाप के घर एक बहादुर बेटा पैदा हुआ है!’ विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब