जल की बूंद-बूंद पर संकट: नीतियों के बावजूद क्यों प्यासी है भारत की धरती?

जल की बूंद-बूंद पर संकट: नीतियों के बावजूद क्यों प्यासी है भारत की धरती?
भारत दुनिया की 18% आबादी और मात्र 4% ताजे जल संसाधनों के साथ गंभीर जल संकट का सामना कर रहा है। भूजल का अत्यधिक दोहन, प्रदूषण, असंतुलित खेती, और जलवायु परिवर्तन इसके प्रमुख कारण हैं। सरकारी योजनाओं और नीतियों के बावजूद कार्यान्वयन और जनभागीदारी की कमी से हालात बिगड़ते जा रहे हैं। जल संरक्षण को जन आंदोलन बनाना, सूक्ष्म सिंचाई को बढ़ावा देना, जल की कीमत तय करना, और पुनर्चक्रण को अनिवार्य बनाना समय की मांग है। जब तक नीति, व्यवहार और चेतना एकसाथ नहीं बदलते, तब तक जल संकट भारत के भविष्य को चुनौती देता रहेगा।
■ डॉ. सत्यवान सौरभ
भारत की धरती पर जल का संकट एक ऐसी विडंबना बन चुका है, जिसे देखकर हैरानी होती है कि इतनी योजनाओं, घोषणाओं और नीतियों के बावजूद यह देश बूंद-बूंद के लिए क्यों तरस रहा है। जब कोई देश दुनिया की 18% जनसंख्या को समेटे हुए हो और उसके पास केवल 4% ताजे जल संसाधन हों, तो संकट की आशंका तो बनती है, पर यदि यही देश दशकों से जल संरक्षण और जल प्रबंधन की योजनाओं का ढोल पीटता हो और फिर भी सूखा, प्यास, और जलजनित बीमारियाँ उसके हिस्से में आएं — तो यह केवल प्राकृतिक संकट नहीं, यह नीति, प्रशासन और नागरिक चेतना की सामूहिक असफलता है। भारत में पानी की स्थिति को अगर आंकड़ों की भाषा में समझें, तो भयावहता साफ़ दिखाई देती है।
नीति आयोग की रिपोर्ट कहती है कि भारत विश्व का सबसे बड़ा भूजल उपभोक्ता है — लगभग 25% भूजल अकेले भारत निकालता है। 11% से अधिक भूजल खंड 'अत्यधिक दोहित' यानी over-exploited की स्थिति में हैं। दिल्ली, बेंगलुरु, हैदराबाद जैसे 21 प्रमुख शहरों के 2030 तक भूजल समाप्त होने की चेतावनी दी जा चुकी है। वहीं दूसरी ओर, 70% जल स्रोत प्रदूषित हैं। फ्लोराइड, आर्सेनिक, नाइट्रेट और भारी धातुओं से दूषित यह जल 23 करोड़ से अधिक लोगों को प्रभावित कर रहा है। हर साल लगभग 2 लाख मौतें सिर्फ जलजनित बीमारियों से होती हैं — यह सिर्फ आंकड़ा नहीं, यह हमारी संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। पानी का यह संकट केवल ग्रामीण इलाकों या गरीबों तक सीमित नहीं है। 2019 में जब चेन्नई जैसे आधुनिक शहर को "Day Zero" का सामना करना पड़ा और जल ट्रेनें चलानी पड़ीं, तब यह साफ हो गया कि यह समस्या अब दरवाज़े पर नहीं, घर के भीतर आ चुकी है। और फिर भी हम इसे मौसमी समस्या मानकर हर बार भूल जाते हैं। सवाल यह है कि नीतियाँ तो बनीं — राष्ट्रीय जल नीति (2012), जल जीवन मिशन, अटल भूजल योजना, नमामि गंगे, जल शक्ति अभियान — पर फिर भी पानी का स्तर क्यों गिरता जा रहा है? जवाब सरल है — हमारी नीतियाँ ज़मीन पर नहीं उतरतीं, और हमारे व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आता। आज भी देश के अधिकांश किसान पानी की फिजूलखर्ची करने वाली फसलों की खेती करते हैं। पंजाब और हरियाणा जैसे जल-संकटग्रस्त राज्य में धान और गन्ने की खेती केवल इसलिए होती है क्योंकि सरकार MSP और मुफ्त बिजली देती है।
नतीजा — भूजल का तेज़ी से दोहन, खेतों का क्षरण, और जल स्रोतों का खत्म हो जाना। दूसरी ओर, ड्रिप सिंचाई या स्प्रिंकलर जैसे आधुनिक जल संरक्षण उपायों की पहुंच केवल 9% खेतों तक ही सीमित है। किसान जानते हैं, पर अपनाते नहीं — क्योंकि नीति और व्यवहार में दूरी है। शहरों की बात करें तो पाइपलाइन से लेकर टंकी तक, हर जगह लीकेज और बर्बादी का आलम है। स्मार्ट मीटरिंग अभी भी अधिकांश नगरपालिकाओं के लिए नया शब्द है। पुनः उपयोग (recycling) और वर्षा जल संचयन (rainwater harvesting) जैसे उपाय कहीं-कहीं दिखते हैं, लेकिन सामूहिक रूप से अपनाए नहीं जाते। सबसे चिंताजनक बात यह है कि जल संकट को अब भी केवल 'प्राकृतिक समस्या' समझा जाता है। जबकि यह एक स्पष्ट रूप से ‘नीतिगत और नैतिक’ संकट है। जब तक यह दृष्टिकोण नहीं बदलेगा, तब तक कोई भी योजना सफल नहीं होगी। अब समय आ गया है कि भारत पानी को "मुफ्त संसाधन" मानना बंद करे और उसे "जीवन मूल्य" की तरह देखे। इसके लिए कुछ गहन और ठोस सुधारों की आवश्यकता है। सबसे पहले, पानी की कीमत तय होनी चाहिए — चाहे वह पीने का हो, या सिंचाई का। मुफ्त पानी की संस्कृति ने उपभोग को बर्बादी में बदल दिया है। जल का मूल्य निर्धारण सामाजिक न्याय और पर्यावरणीय विवेक के बीच संतुलन साध सकता है।
दूसरा, सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियों को केवल योजना पत्रों से निकालकर ज़मीनी हकीकत बनाना होगा। इसके लिए तकनीकी प्रशिक्षण, सस्ती उपलब्धता, और स्थानीय स्तर पर सहायता तंत्र बनाना होगा। तीसरा, भूजल का प्रबंधन केवल सरकार का नहीं, ग्राम पंचायतों और स्थानीय समुदायों का भी कर्तव्य होना चाहिए। अटल भूजल योजना को इस दिशा में सफल मॉडल के रूप में बढ़ाया जा सकता है। चौथा, किसानों को केवल फसल बीमा या सब्सिडी नहीं, जल आधारित फसल मार्गदर्शन की ज़रूरत है। यह तभी होगा जब MSP का ढांचा जल संरक्षण के अनुकूल फसलों को बढ़ावा देगा। देश को ऐसे नीतिगत हस्तक्षेपों की ज़रूरत है जो किसान की आय भी बढ़ाएं और पानी की बचत भी करें। पाँचवां, शहरों में जल पुनर्चक्रण अनिवार्य किया जाए। जो नगर पालिकाएं wastewater को recycle नहीं करतीं, उन्हें दंड और प्रोत्साहन दोनों के माध्यम से बदला जाए। बड़े भवनों में वर्षा जल संचयन अनिवार्य हो, और इसके अनुपालन की निगरानी की जाए। छठा, बच्चों के स्कूली पाठ्यक्रम में जल संरक्षण को केवल पर्यावरण अध्याय के रूप में न पढ़ाया जाए, बल्कि व्यवहार परिवर्तन के रूप में सिखाया जाए। यदि अगली पीढ़ी जल को 'कीमती' माने, तो आज की प्यास भविष्य की सूखी धरती को बचा सकती है। सातवां, जल संरक्षण को 'जन आंदोलन' बनाना होगा — जैसा प्रधानमंत्री ने आह्वान किया था। लेकिन यह आह्वान केवल भाषणों में नहीं, बजट और प्रशासनिक प्रतिबद्धता में दिखना चाहिए।
जल शक्ति मंत्रालय को केवल नल जोड़ने वाला मंत्रालय नहीं, जल नीति, जल शिक्षा और जल चेतना का नेतृत्व करना होगा। साथ ही, निजी क्षेत्र की भूमिका को भी समझना और बढ़ाना होगा। जल एटीएम, पाइपलाइन प्रबंधन, स्मार्ट मीटरिंग, और जल पुनर्चक्रण जैसी सेवाओं में PPP मॉडल को बढ़ावा देकर न केवल निवेश लाया जा सकता है, बल्कि तकनीकी नवाचार भी हो सकते हैं। और सबसे महत्वपूर्ण — हमें यह समझना होगा कि जल संकट केवल वैज्ञानिकों और नौकरशाहों का विषय नहीं है। यह आम नागरिक का संकट है। हर घर, हर हाथ को यह जिम्मेदारी लेनी होगी कि पानी को बर्बाद नहीं किया जाएगा, और हर बूंद का सम्मान होगा। जलवायु परिवर्तन के इस युग में, जब बारिश की मात्रा अनिश्चित हो गई है, और हिमालयी ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं — हमें जल को ‘अनंत’ नहीं, बल्कि ‘सीमित और नाजुक’ संसाधन मानना होगा। भारत की सांस्कृतिक परंपरा में जल को देवता का दर्जा मिला है — लेकिन विडंबना यह है कि आज वही जल नदियों में मल-मूत्र के रूप में बह रहा है, या गंदे नालों से होकर भूजल में जहर घोल रहा है। इसलिए आज का भारत केवल ‘जल संकट’ नहीं झेल रहा, बल्कि वह अपने भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहा है।
जल संकट में डूबा भारत, विकास के हर मोर्चे पर कमजोर पड़ता जाएगा — चाहे वह स्वास्थ्य हो, कृषि, उद्योग या सामाजिक समरसता। अंततः यही कहा जा सकता है कि जल संकट केवल पानी की समस्या नहीं है — यह व्यवस्था, संस्कृति, शिक्षा और नीयत की भी परीक्षा है। यदि हमने अब भी नहीं संभला, तो इतिहास गवाह रहेगा कि हमने एक ऐसे संसाधन को खो दिया, जो जीवन का मूल था, और जिसकी एक-एक बूंद सोने से भी महंगी थी। अब वक्त आ गया है — नीतियों की बौछार से बाहर निकलकर बूंद-बूंद बचाने के व्यवहारिक आंदोलन को अपनाने का। क्योंकि आने वाले वर्षों में ‘जल’ ही ‘राजनीति’, ‘आर्थिक ताकत’ और ‘सामाजिक न्याय’ का सबसे बड़ा मुद्दा बनने वाला है। लेखक परिचय: डॉ. सत्यवान सौरभ — स्वतंत्र चिंतक, सामाजिक विश्लेषक और समसामयिक विषयों पर गहन लेखन के लिए चर्चित। शिक्षा, ग्रामीण भारत और जलवायु विषयों पर विशेष रूचि।