इन दिनों किताबों की दुनिया बदल रही है

किताबों का इतिहास बहुत दिलचस्प है। पहले यह माना जाता था कि मुद्रित पुस्तकों की प्रक्रिया 1448 ई. में शुरू हुई थी। इसकी शुरुआत 1500 में हुई, जब जोहान्स गुटेनबर्ग ने प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार किया। लेकिन बाद में यह बात गलत साबित हुई। । हालाँकि, पाँच हज़ार साल पहले भी किताबें थीं, लेकिन वे आज जैसी नहीं थीं। वे प्राचीन पुस्तकें सफेद मिट्टी की पट्टियों पर लिखी गयी थीं। इन प्रारंभिक पुस्तकों के अवशेष सरगान, बोबल आदि स्थानों पर पाए गए हैं। बेबेल, जिसे आज हम बेबीलोनिया कहते हैं, में लगभग ढाई हजार ऐसी छुट्टियां मिली हैं। इन्हें विभिन्न विषयों में वर्गीकृत किया गया है, जैसे ज्योतिष, व्याकरण, चिकित्सा आदि।
चीन के पहले यात्री फाह्यान ने 399 से 414 ई. तक यात्रा की थी। वह 1920-2000 के बीच भारत आए थे। अपने यात्रा वृत्तांत में उन्होंने शैक्षिक केंद्रों में पुस्तकालयों के अस्तित्व पर प्रकाश डाला था। एक अन्य चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने 629 से 645 ई. तक यात्रा की थी। उन्होंने 1811 में मध्य एशिया और भारत का शैक्षिक दौरा किया। उन्होंने रेशमी कपड़े, भोजपत्र, चमड़े और लकड़ी के चौकोर टुकड़ों पर हाथ से लिखी गई पुस्तकों का उल्लेख किया। हालाँकि, तब तक चीन के हान राजवंश के दौरान कागज का आविष्कार हो चुका था। काई लुन नामक व्यक्ति को कागज का आविष्कारक माना जाता है। लेकिन वहां से अन्य देशों तक पहुंचने में काफी समय लग गया। जब कागज अस्तित्व में आया तो इसका उपयोग किताबें लिखने के लिए किया जाता था। गुटेनबर्ग ने 1448 ई. में प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार किया था। सन् 1811 में उन्होंने अपने मुद्रण-यंत्र से पहली पुस्तक, बाइबल, छापी। लंबे समय तक इस बाइबल को पहली मुद्रित पुस्तक माना जाता रहा। लेकिन उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में यह सम्मान तिब्बत के एक मठ में मिले 'हीरा सूत्र' को दिया गया। यह एक बौद्ध धर्मग्रंथ है, जिसका पाली भाषा से चीनी भाषा में अनुवाद किया गया है। दरअसल, जोहानिस गुटेनबर्ग से बहुत पहले बौद्ध भिक्षुओं ने मुद्रण की एक विधि का आविष्कार कर लिया था। इस पद्धति में मुद्रित की जाने वाली सामग्री को लकड़ी के चौकोर टुकड़ों पर उल्टा लिखा जाता था। फिर, स्याही वाले भाग को छोड़कर, लकड़ी की शेष सतह को खोखला कर दिया गया और समतल कर दिया गया। एक पुस्तक के लिए ऐसे कई टिकट बनाने पड़ते थे। यह काफी कठिन काम था, लेकिन एक बार टिकट तैयार हो जाने के बाद किताबों की 50-100 प्रतियां छापना आसान हो गया। लगभग बारह सौ साल पहले किताबों की दुनिया के लिए यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी। डायमंड सूत्र 868 ई. में लिखा गया था। इसे इसी मुद्रांकन विधि का उपयोग करके मुद्रित किया गया था पुस्तकों की एक लम्बी परम्परा रही है। इसे ज्ञान का भण्डार कहा जाता है। किताबें इस दुनिया को बदलने का एक साधन बन गई हैं। महाभारत में भगवान कृष्ण द्वारा दी गई गीता की शिक्षाएं आज एक पुस्तक के रूप में संरक्षित हैं। बाइबल, कुरान, रामायण और वेद पवित्र ग्रंथ हैं। लेकिन इसका स्वरूप एक किताब जैसा है।
किताबें देश-विदेश में प्रसिद्ध हैं। अंग्रेजी इतिहासकार और दार्शनिक थॉमस कार्लाइल ने पुस्तकों के बारे में कहा है - मानव जाति ने जो कुछ भी किया, सोचा, हासिल किया या घटित हुआ, यह सब पुस्तकों के जादुई पन्नों में सुरक्षित है। अर्थात् पुस्तकें मानवता के दस्तावेज हैं। पुस्तकें मनुष्य को जीवन का मार्ग दिखाती हैं, जीने के नए तरीके सुझाती हैं। अंग्रेजी लेखिका डोरोथी व्हिपल इस तथ्य को इस प्रकार प्रस्तुत करती हैं – “पुस्तकें समय के विशाल सागर में स्थापित प्रकाश स्तम्भ हैं।” लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक पुस्तकों के बहुत बड़े भक्त थे। उनका कथन है - मैं अच्छी पुस्तकों का नरक में भी स्वागत करूंगा, क्योंकि उनमें जहां भी वे रहती हैं, वहां स्वर्ग बनाने की शक्ति होती है। - इसका मतलब यह है कि किताबें हमारे जीवन में सच्ची मार्गदर्शक और प्रेरणा के स्रोत की भूमिका निभाती हैं। पंडित जवाहरलाल नेहरू कहते थे - +हम पुस्तकों के बिना दुनिया की कल्पना भी नहीं कर सकते।4 वास्तव में, पुस्तकें व्यक्तित्व के समग्र परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। किसी विद्वान ने पुस्तकों को सभ्यता की आंखें कहा है। किताबों से दोस्ती करने का सबसे अच्छा समय बचपन है। इस उम्र में एक बार दोस्ती हो जाए तो वह जीवन भर चलती है। शिक्षाविद् डी.एस. कोठारी बच्चों को उनकी आयु के अनुरूप पुस्तकें उपलब्ध कराने के बड़े समर्थक थे। उनके शब्दों में - बाल साहित्य पढ़ने से बच्चे का बौद्धिक क्षितिज विस्तृत होता है और वह दृश्यमान परिवेश के प्रति अधिक संवेदनशील बनता है।
यह बच्चों में प्रकृति, पर्यावरण और पर्यावरण के सजीव और निर्जीव तत्वों के प्रति जिज्ञासा और जिम्मेदारी की भावना पैदा करता है। सामाजिक सरोकारों और मानवीय मूल्यों से जुड़ने में साहित्य महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। किताबें कुछ कहना चाहती हैं, वे आपके साथ रहना चाहती हैं। इस कविता में पुस्तकों के महत्व को रेखांकित किया गया है। यदि आप इसे पढ़ेंगे तो आपको पता चल जाएगा, हाँ! पुस्तक में हर पहलू को शामिल किया गया है। लेकिन यह भी सच है कि आजकल किताबों की कद्र बहुत कम हो गई है। किताबों से हमारी दोस्ती इसलिए हुई क्योंकि हमारे परिवार और पड़ोस के बड़े-बुजुर्ग किताबें पढ़ा करते थे। उन्हें देखकर हम भी किताबों के पन्ने पलटने लगे। फिर एक समय आया जब हम किताबों की दुनिया में उतरने लगे। अब समय बदल गया है. समाज किताबों से दूर हो गया है। बूढ़े से लेकर जवान, यहां तक कि बच्चे भी कर्ण के बाद मोबाइल फोन में व्यस्त रहते हैं। जिन शब्दों में कभी जिंदगी धड़कती थी, वे अब अलमारी में बंद किताब के पन्नों में सिमट कर रह गए हैं। आजकल किताबों की दुनिया बदल रही है। पहले तो ढेरों किताबें होती थीं - धर्म पर, कर्म पर, ज्ञान पर, कहानियाँ, कविता, उपन्यास, दर्शन, इतिहास, काव्य से लेकर महाकाव्य तक... लेकिन अब सब कुछ एक फोटो मोबाइल, टैबलेट या लैपटॉप में मिल जाता है। असीमित डेटा की दुनिया अमर रहे! इसका मतलब यह है कि किताबों की दुनिया अब डिजिटल युग में प्रवेश कर चुकी है। शब्दों की शक्ति किताबों से ऑनलाइन तक पहुंच गई है। अब ई-पुस्तकों का युग आ रहा है। किताबों के मोमबत्ती संस्करण निकलने लगे हैं। इन्हें केवल डिवाइस पर ही पढ़ा जा सकता है। राष्ट्रीय स्तर के पाठ्यक्रम ऑनलाइन उपलब्ध हैं। किताबों की दुनिया तेजी से बदल रही है। इस प्रकार, पारंपरिक पुस्तकों के अस्तित्व और उपयोगिता पर सवाल उठ रहे हैं। क्या आने वाले समय में पुस्तकों का स्वरूप अतीत की स्मृति मात्र बनकर रह जाएगा? जब भी हम किताबों की बात करते हैं तो ज्ञान और साहित्य उसके केंद्र में होते हैं। समाज किताबों से दूर होता जा रहा है। लेकिन क्या ये परिवर्तन, इंटरनेट और उपकरण जो पुस्तक और पाठक के बीच आ गए हैं, प्राकृतिक विकास का हिस्सा हैं? यह गंभीर बहस का विषय है, लेकिन इस नए माध्यम को पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता। आने वाले समय में इसके माध्यम से साहित्य, मनोरंजन और ज्ञान का सृजन होगा। विज्ञान का एक नया मार्ग उभरेगा।
हम अतीत में वापस नहीं जा सकते. लेकिन विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या यह नया माध्यम ज्ञान, मनोरंजन और संस्कृति प्रदान करने में पुस्तकों की भूमिका का स्थान ले पाएगा। इसका उत्तर केवल नकारात्मक ही हो सकता है। पुस्तकें न केवल ज्ञान और मनोरंजन प्रदान करती हैं, बल्कि मानसिक शक्ति भी बढ़ाती हैं। जबकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हमारी मानसिक शक्ति को कमजोर करता है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम इस माध्यम के साथ गहरी एकता स्थापित नहीं कर पाते। इसलिए ई-बुक पढ़ते समय हम संवेदना और दृश्यावलोकन की वांछित स्थिति से दूर हो जाते हैं। इस स्थिति में पढ़ें विषय-वस्तु हमारी मानसिकता पर गहरी छाप नहीं छोड़ सकती। इससे हमें मनोरंजन और जानकारी तो मिल सकती है, लेकिन ज्ञान और संस्कृति नहीं। जब कोई पाठ गहन एकाग्रता और पूर्ण जागरूकता की स्थिति में पढ़ा जाता है, तो वह हमारे मन में काफी समय तक स्थिर रहता है और हमारे विचारों को प्रभावित करता है। यह दृश्य पाठक के पिछले अनुभव को पुनः जीवंत कर देता है। इस पुन:निर्माण में उसे ज्ञान प्राप्त होता है, जो उसके आचरण के साथ मिलकर संस्कार का निर्माण करता है। वास्तव में, किसी व्यक्ति का व्यवहार ही उसकी संस्कृति है। यह पूरी प्रक्रिया ई-पुस्तकों या वीडियो के माध्यम से उतनी आसानी से और व्यवस्थित रूप से नहीं की जा सकती, जितनी पारंपरिक पुस्तकों को पढ़ने से की जा सकती है। यही कारण है कि शिक्षाविद और बुद्धिजीवी समाज से दूर होती जा रही पुस्तकों को वापस लाने के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं। यदि पारंपरिक पुस्तकें न होतीं तो मानव आत्मा का विकास अवरुद्ध हो जाता और जड़ता बढ़ जाती। इसलिए, प्राथमिक शिक्षा स्तर पर बच्चों में बाल साहित्य पढ़ने की रुचि पैदा करने के प्रयास किए जा रहे हैं। 'सर्व शिक्षा अभियान' के तहत प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में 'सक्रिय पुस्तकालय' अभियान शुरू किया गया। वहां प्रशिक्षण था। ■ प्रदूषण पर निगरानी और हकीकत __ विजय गर्ग दिल्ली की हवा जहरीली होती जा रही है। शहरीकरण, वाहनों की भीड़, औद्योगिक गतिविधियों और अनियंत्रित निर्माण कार्यों से स्थितियां जटिल हो गई हैं। वायु प्रदूषण अब केवल एक मौसमी समस्या नहीं, बल्कि वर्ष भर के लिए सतत स्वास्थ्य आपातकाल बन चुका है। मगर अफसोस कि दिल्ली में वायु प्रदूषण से सार्वजनिक स्वास्थ्य से बचाव के लिए जिन जरूरी कदमों की दरकार थी, उनके बजाय सरकारी तंत्र आंकड़ों की चमक-दमक के पीछे भागता दिख रहा है। दिल्ली में वायु गुणवत्ता की निगरानी के लिए बहुस्तरीय ढांचा मौजूद है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति द्वारा संचालित चालीस से अधिक सतत निगरानी केंद्र समूचे शहर में कार्यरत हैं।
कागज पर यह व्यवस्था व्यापक लगती है, लेकिन जमीनी सच्चाई कहीं अधिक जटिल और चिंताजनक है। कई निगरानी केंद्र उन जगहों पर जहां वैज्ञानिक मानकों के मुताबिक नहीं होना चाहिए। नतीजतन, प्रदूषण के वास्तविक स्तर का पता नहीं लग पाता। केंद्रीय एजेंसियों और नियंत्रकों और महालेखापरीक्षक (कैग) की ताजा रपट के मुताबिक निगरानी नेटवर्क में पारदर्शिता और वैज्ञानिक ईमानदारी का अभाव है। दिल्ली की नई सरकार प्रदूषण के मसले पर संजीदा दिख रही है, चाहे | सफाई का मुद्दा ह की हो या फिर राजधानी की खराब हवा । इसी कवायद यमुना में छह इ नए सतत वायु गुणवत्ता निगरानी स्टेशन स्थापित करने की पहल ने विवाद पैदा कर दिया है। गहन विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि नए स्टेशनों के लिए चयनित स्थान जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली छावनी, राष्ट्रमंडल परिसर खेल और इसरो अर्थ स्टेशन जैसे इलाके, अपेक्षाकृत स्वच्छ और हरित क्षेत्र हैं। इन स्थानों में वायु गुणवत्ता पहले से ही औद्योगिक या भीड़भाड़ वाले क्षेत्रों की तुलना में काफी बेहतर रहती है। जबकि असली संकट घन आबादी और भारी प्रदूषण वाले इलाकों में पसरा हुआ है, तब निगरानी का विस्तार अपेक्षाकृत स्वच्छ क्षेत्रों तक करना एक तरह से वायु प्रदूषण के विकराल होते संकट को छिपाने की चतुराई है। “ऐसे में, छह नए स्टेशनों के चयन से दिल्ली का औसत वायु गुणवत्ता सूचकांक कृत्रिम रूप से रूप से सुधरता दिखाई देगा, जबकि धरातल पर प्रदूषण की भयावहता जस की तस की तस बनी रहेगी। । यह आंकड़ों का सौंदर्यीकरण महज कागजी राहत प्रदान कर सकता है, वास्तविकता में दिल्ली वालों की उखाड़ती सांसों में कोई सु सुकून नहीं ला सकता। वायु गुणवत्ता सूचकांक के आंकड़ों में सुधार दिखाने की रणनीति प्रदूषण और शहरी निकाय के नीतिगत निर्णयों को भी भ्रमित करने वाला सकता अभी दिल्ली में वायु गुणवत्ता निगरानी वाले चालीस स्टेशन हैं, जिनमें कम कम दस औद्योगिक इलाकों में, सात हरित क्षेत्रों, आठ रिहायशी इलाकों और बाकी भीड़भाड़ वाले क्षेत्रों में हैं। कई रपटें अपर्याप्त वायु गुणवत्ता निगरानी नेटवर्क की और इशारा कर चुकी हैं।
सघन जनसंख्या वाले आवासीय क्षेत्र, भीड़भाड़ और भारी यातायात वाले क्षेत्र, औद्योगिक क्षेत्र, कूड़ा निस्तारण के इलाके और निर्माण वाले क्षेत्रों में अधिकांश लोग, विशेष रूप से बच्चे और बुजुर्ग प्रदूषित हवा के लंबे समय तक संपर्क के प्रतिकूल स्वास्थ्य प्रभावों से सबसे अधिक प्रभावित हैं। दिल्ली में वायु निगरानी तंत्र के विस्तार के लिए उपरोक्त स्थानों को प्राथमिकता देने की जरूरत है। मसलन, ओखला और उत्तर-पूर्वी दिल्ली के कुछ हिस्से में अभी भी चौबीस घंटे निगरानी नहीं है। दिल्ली के निगरानी स्टेशन के भौगोलिक विस्तार को देखें तो दक्षिण-पश्चिम और उत्तर-पश्चिम के बाहरी इलाकों में निगरानी स्टेशन बढ़ाने की जरूरत है। दिल्ली के वायु गुणवत्ता निगरानी नेटवर्क का वितरण असमान और असंतुलित है। अपेक्षाकृत साफ हरित इलाकों और स्वच्छ परिसरों में वायु प्रदूषण निगरानी तंत्र स्थापित करने का वैज्ञानिक औचित्य हो सकता है, क्योंकि ये दीर्घकालिक रुझानों और तुलनात्मक शोध के लिए एक प्रकार के नियंत्रण समूह की भूमिका निभा सकते हैं। मगर जब पूरा शहर वायु प्रदूषण के कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल का सामना कर रहा हो, तब नीतिगत रूप से प्राथमिकता उन इलाकों को मिलनी चाहिए, जहां वायु प्रदूषण का स्तर सर्वाधिक है और जहां सबसे अधिक जनसंख्या निवास करती है। वर्तमान परिदृश्य में आंकड़ों के सौंदर्यीकरण की कोशिश तकनीकी समझ की कमी का परिणाम हो सकती है। ཀ་་བལ་ इससे तत्कालीन राजनीतिक लाभ दिखने भी लगे, लेकिन दीर्घकालिक रूप से दिल्ली वासियों को शायद ही कोई सकारात्मक परिणाम मिले । दिल्ली का सरकारी अमला वायु गुणवत्ता निगरानी, खासकर स्वास्थ्य संबंधी तकनीकी पहलू को दरकिनार कर औसत वायु गुणवत्ता के हिसाब- किताब के केवल सांख्यिकी पहलू पर जोर देता दिख रहा है। वायु प्रदूषण पर चिंता का महत्त्वपूर्ण कारण है, उसका स्वास्थ्य पर विनाशकारी प्रभाव। औसत वायु गुणवत्ता निर्धारण में अक्सर दो किस्म की विसंगतियां होने की संभावना रहती है। कम प्रदूषण के बदले ज्यादा प्रदूषण की गणना और इसका उल्टा यानी ज्यादा प्रदूषित के बदले कम प्रदूषण की गणना हो ।
गणना हो जाना। दूसरी वाली विसंगति में अधिक प्रदूषण वाले क्षेत्र में कम प्रदूषण दर्ज होगा। निगरानी स्टेशनों के स्थान चयन में पारदर्शिता का अभाव दिखता है। ऐसा लगता है कि प्रदूषण के असली स्रोतों को उजागर करने से बचने के लिए जानबूझ की चुना गया है। कर कम प्रदूषित इलाकों को स्वास्थ्य नीति का मूल सिद्धांत यही होना चाहिए कि समस्या की पहचान पूरी ईमानदारी और वैज्ञानिक विधि से की जाए। अगर मूलभूत आंकड़ा ही गड़बड़ हो जाए, तो न तो न कोई प्रभावी हस्तक्षेप संभव है और न ही स्वास्थ्य आपदा को टाला जा सकता है। सरकारी स्तर का यह फैसला खराब या प्रदूषित हवा को केवल कम प्रदूषित हवा मान लेने भर का मामला नहीं है। शहर की औसत वायु गुणवत्ता, महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक स्वास्थ्य परामर्शी, गंभीर प्रदूषण के दौरान स्कूल- कालेज बंद करने, कार्यालयों में आनलाइन गतिविधि संबंधी निर्णय शहरी नियोजन के दूरगामी रणनीतियों के निर्धारण सहित अनेक सरकारी और गैर- सरकारी निर्णयों के लिए आधार का काम करता है। खासकर सर्वोच्च न्यायालय के दखल के बाद 2016 से दिल्ली में 'ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान' (ग्रैप)
● औसत होने के बाद शहर का लागू होने वायु गुणवत्ता सूचकांक एक पैमाना बन गया है। ग्रुप एक तरह से दिल्ली-एनसीआर में बढ़े हुए वायु प्रदूषण स्तर को तात्कालिक रूप से नियंत्रित करने की आपातकालीन व्यवस्था है। दिल्ली की र के लिए निगरानी नेटवर्क दिल्ली की वायु गुणवत्ता में सुधार " का पुनर्गठन एक प्राथमिक आवश्यकता है। यहां वायु निगरानी ढांचे का विस्तार एक सकारात्मक कदम हो सकता है. , लेकिन नए वायु गुणवत्ता निगरानी स्टेशन को मुख्य रूप से अपेक्षाकृत स्वच्छ, हरे-भरे क्षेत्रों में स्थापित करने की वर्तमान रणनीति भ्रामक दृष्टिकोण प्रतीत होती है, जिससे न सिर्फ सार्वजनिक स्वास्थ्य चेतावनियाँ, बल्कि प्रदूषण कम का ऐसे मोड़ पर खड़ी है, जहां वायु करने प्रयास गलत दिशा में सकते हैं। वर्तमान परिदृश्य में दिल्ली एक प्रदूषण का संकट नीतिगत चूक और इच्छाशक्ति की परीक्षा ले रहा है। आंकड़ों को सुधार कर न तो हवा साफ होगी और न ही दमघोंटू हवा से निजात मिलेगी। ऐसे में नीति निर्माताओं की प्राथमिकता जनस्वास्थ्य हो, न कि आंकड़ों की चमकती तस्वीरें दिखाना। सरकार पारदर्शी तरीके से और तकनीकी पक्ष के आधार पर प्रदूषण नियंत्रण की नीति लागू करे।
[2) तपती गर्मी में पाचन की सुस्ती
गर्मी बढ़ती है, तो अक्सर लोगों में जठराग्नि के मंद पड़ जाने की शिकायत देखी जाती है। जठराग्नि मंद पड़ने का अर्थ है कि भोजन ठीक से नहीं पच पाता। अपच बना रहता है। इस तरह शरीर में सुस्ती और ऊर्जा की कमी महसूस होती है । जाहिर है, इसका असर दैनिक कामकाज पर भी पड़ता है। इसलिए सलाह दी जाती है कि इस मौसम में हल्का-फुल्का भोजन लें, तरल पदार्थों का सेवन अधिक करें। पर जठराग्नि मंद पड़ने का संबंध केवल खानपान से नहीं होता। एक बार पाचनतंत्र कमजोर होना शुरू होता है, तो उसका दीर्घकालिक प्रभाव बना रहता है। मौसम बदलने के बाद भी वह सुचारु रूप से काम नहीं कर पाता। ऐसे में खानपान संबंधी एहतियात बरतने के साथ-साथ कुछ व्यायाम भी अवश्य करने चाहिए । अग्निसार व्यायाम जठराग्नि यानी जठर की अग्नि । वह अग्नि, जो भोजन पचाने के लिए आवश्यक है। अगर वही अग्नि पेट में मंद पड़ जाए, तो भोजन ठीक से पच नहीं पाता, सड़ता रहता है। उससे विषाक्त रसायन पैदा होते हैं, एसिडिटी की समस्या गहरी होती जाती है और अनेक रोगों को जन्म देती है। जठराग्नि को प्रबल करने में अग्निसार व्यायाम बहुत कारगर साबित होता है । सुबह खाली पेट वज्रासन में बैठ जाएं। दोनों पैरों को मोड़ कर पीछे कर लें। हथोलियों को घुटनों पर रखें और हल्का दबाव बनाएं। पेट को ढीला रखें। सांस को रोक लें। पेट को हिलाएं। जितनी देर सांस रोक कर पेट को हिला सकते हैं, उतनी देर हिलाएं। यह क्रिया पांच से सात बार करें । इस तरह जठराग्नि बढ़ जाती है। भूख लगने लगती है और भोजन पचना शुरू हो जाता है। हल्का और सुपाच्य भोजन गर्मी के मौसम में जठराग्नि स्वाभाविक रूप से सुस्त पड़ जाती है। इसलिए तला हुआ, ज्यादा मिर्च- मसाले वाला भोजन पचाने में दिक्कत आती है।
इसलिए ऐसे व्यंजनों से परहेज करना ही बेहतर रहता है । हमेशा ऐसे व्यंजन चुनें, जिन्हें पचाना आसान हो, उन्हें खाने से ऊर्जा भी भरपूर मिले। अंकुरित दालों और अनाज को भाप में पका कर खाना ज्यादा अच्छा रहता है। दलिया, खिचड़ी, उबली हुई सब्जियां, इडली आदि जैसे भाप में पके भोजन इस मौसम में ज्यादा सुपाच्य और ऊर्जा से भरपूर हो सकते हैं। तरल पदार्थ लें तेज गर्मी और गर्म हवा के कारण शरीर का पानी तेजी से सूखता है। शरीर में पानी, नमक और चीनी की मात्रा संतुलित होना बहुत जरूरी है। इसलिए इस मौसम में तरल पदार्थों का सेवन ज्यादा उचित होता है। फलों का रस, तरबूज, खरबूज, ककड़ी, खीरा इसमें ज्यादा सहायक होते हैं। इसके अलावा, छाछ, सत्तू की लस्सी, दलिया - छाछ, सौंफ का शर्बत शरीर को निर्जलीकरण से बचाते और ऊर्जा से भरपूर रखते हैं । जब भी बाहर निकलें और देर तक घर से बाहर रहना हो, तो झोले में पानी की बोतल अवश्य रखें। अगर हो सके, तो पानी में काट कर खीरे के कुछ टुकड़े, पुदीने की कुछ पत्तियां और चुटकी भर नमक अवश्य डाल लें। इससे शरीर को बहुत राहत मिलती है और पाचनतंत्र भी मंद पड़ने से बचता है। विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब